श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 22-33

अष्टम स्कन्ध: तृतीयोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 22-33 का हिन्दी अनुवाद


जिनकी अत्यन्त छोटी कला से अनेकों नाम-रूप भेद-भाव से युक्त ब्रह्मा आदि देवता, वेद और चराचर लोकों की सृष्टि हुई है, जैसे धधकती हुई आग से लपटें और प्रकाशमान सूर्य से उनकी किरणें बार-बार निकलती और लीन होती रहती हैं, वैसे ही जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शरीर-जो गुणों के प्रवाहरूप हैं-बार-बार प्रकट होते तथा लीन हो जाते हैं, वे भगवान् न देवता हैं और न असुर। वे मनुष्य और पशु-पक्षी भी नहीं हैं। न वे स्त्री हैं, न पुरुष और न नपुंसक। वे कोई साधारण या असाधारण प्राणी भी नहीं हैं। न वे गुण हैं और न कर्म, न कार्य हैं और न तो कारण ही। सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बचा रहता है, वही उनका स्वरूप है तथा वे ही सब कुछ हैं। वे ही परमात्मा मेरे उद्धार के लिये प्रकट हों।

मैं जीना नहीं चाहता। यह हाथी की योनि बाहर और भीतर-सब ओर से अज्ञानरूप आवरण के द्वारा ढकी हुई है, इसको रखकर करना ही क्या है? मैं तो आत्मप्रकाश को ढकने वाले उस अज्ञानरूप आवरण से छूटना चाहता हूँ, जो कालक्रम से अपने-आप नहीं छूट सकता, जो केवल भगवत्कृपा अथवा तत्त्वज्ञान के द्वारा ही नष्ट होता है। इसलिये मैं उन परब्रह्म परमात्मा की शरण में हूँ जो विश्वरहित होने पर भी विश्व के रचयिता और विश्वस्वरूप हैं-साथ ही जो विश्व की अन्तरात्मा के रूप में विश्वरूप सामग्री से क्रीड़ा करते रहते हैं, उन अजन्मा परमपदस्वरूप ब्रह्म को मैं नमस्कार करता हूँ।

योगी लोग योग के द्वारा कर्म, कर्मवासना और कर्मफल को भस्म करके अपने योगशुद्ध हृदय में जिन योगेश्वर भगवान् का साक्षात्कार करते हैं-उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ।

प्रभो! आपकी तीन शक्तियों-सत्त्व, रज और तम के रागादि वेग असह्य हैं। समस्त इन्द्रियों और मन के विषयों के रूप में भी आप ही प्रतीत हो रहे हैं। इसलिये जिनकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, वे तो आपकी प्रप्ति का मार्ग भी नहीं पा सकते। आपकी शक्ति अनन्त है। आप शरणागतवत्सल हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। आपकी माया अहं बुद्धि से आत्मा का स्वरूप ढक गया है, इसी से यह जीव अपने स्वरूप को नहीं जान पाता। आपकी महिमा अपार है। उन सर्वशक्तिमान् एवं माधुर्यनिधि भगवान् की मैं शरण में हूँ।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! गजेन्द्र ने बिना किसी भेदभाव के निर्विशेष रूप से भगवान् की स्तुति की थी, इसलिये भिन्न-भिन्न नाम और रूप को अपना स्वरूप मानने वाले ब्रह्मा आदि देवता उसकी रक्षा करने के लिये नहीं आये। उस समय सर्वात्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरूप स्वयं भगवान् श्रीहरि प्रकट हो गये। विश्व के एकमात्र आधार भगवान् ने देखा कि गजेन्द्र अत्यन्त पीड़ित हो रहा है। अतः उसकी स्तुति सुनकर वेदमय गरुड़ पर सवार हो चक्रधारी भगवान् बड़ी शीघ्रता से वहाँ के लिये चल पड़े, जहाँ गजेन्द्र अत्यन्त संकट में पड़ा हुआ था। उनके साथ स्तुति करते हुए देवता भी आये।

सरोवर के भीतर बलवान् ग्राह ने गजेन्द्र को पकड़ रखा था और वह अत्यन्त व्याकुल हो रहा था। जब उसने देखा कि आकाश में गरुड़ पर सवार होकर हाथ में चक्र लिये भगवान् श्रीहरि आ रहे हैं, तब अपनी सूँड़ में कमल का एक सुन्दर पुष्प लेकर उसने ऊपर को उठाया और बड़े कष्ट से बोला- ‘नारायण! जगद्गुरो! भगवन्! आपको नमस्कार है’। जब भगवान् ने देखा कि गजेन्द्र अत्यन्त पीड़ित हो रहा है, तब वे एकबारगी गरुड़ को छोड़कर कूद पड़े और कृपा करके गजेन्द्र के साथ ही ग्राह को भी बड़ी शीघ्रता से सरोवर से बाहर निकाल लाये। फिर सब देवताओं के सामने ही भगवान् श्रीहरि ने चक्र से ग्राह का मुँह फाड़ डाला और गजेन्द्र को छुड़ा लिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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