श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 15-31

अष्टम स्कन्ध: त्रयोविंशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: त्रयोविश अध्यायः श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद


शुक्राचार्य जी ने कहा- 'भगवन! जिसने अपना समस्त कर्म समर्पित करके सब प्रकार से यज्ञेश्वर यज्ञपुरुष आपकी पूजा की है-उसके कर्म में कोई त्रुटि, कोई विषमता कैसे रह सकती है? क्योंकि मन्त्रों की, अनुष्ठान-पद्धति की, देश, काल, पात्र और वस्तु की सारी भूलें आपके नाम संकीर्तन मात्र से सुधर जाती है; आपका नाम सारी त्रुटियों को पूर्ण कर देता है। तथापि अनन्त! जब आप स्वयं कह रहे हैं, तब मैं आपकी आज्ञा का अवश्य पालन करूँगा। मनुष्य के लिये सबसे बड़ा कल्याण का साधन यही है कि वह आपकी आज्ञा का पालन करे।'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- भगवान शुक्राचार्य ने भगवान श्रीहरि की यह आज्ञा स्वीकार करके दूसरे ब्रह्मर्षियों के साथ, बलि के यज्ञ में जो कमी रह गयी थी, उसे पूर्ण किया।

परीक्षित! इस प्रकार वामन भगवान ने बलि से पृथ्वी की भिक्षा माँगकर अपने बड़े भाई इन्द्र को स्वर्ग का राज्य दिया, जिसे उनके शत्रुओं ने छीन लिया था। इसके बाद प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्मा जी ने देवर्षि, पितर, मनु, दक्ष, भृगु, अंगिरा, सनत्कुमार और शंकर जी के साथ कश्यप एवं अदिति की प्रसन्नता के लिये तथा सम्पूर्ण प्राणियों के अभ्युदय के लिये समस्त लोक और लोकपालों के स्वामी के पद पर वामन भगवान का अभिषेक कर दिया।

परीक्षित! वेद, समस्त देवता, धर्म, यश, लक्ष्मी, मंगल, व्रत, स्वर्ग और अपवर्ग-सबके रक्षक के रूप में सबके परम कल्याण के लिये सर्वशक्तिमान वामन भगवान को उन्होंने उपेन्द्र का पद दिया। उस समय सभी प्राणियों को अत्यन्त आनन्द हुआ। इसके बाद ब्रह्मा जी की अनुमति से लोकपालों के साथ देवराज इन्द्र ने वामन भगवान को सबसे आगे विमान पर बैठाया और अपने साथ स्वर्ग लिवा ले गये। इन्द्र को एक तो त्रिभुवन का राज्य मिल गया और दूसरे, वामन भगवान के करकमलों की छत्रछाया। सर्वश्रेष्ठ ऐशवर्यलक्ष्मी उनकी सेवा करने लगी और वे निर्भय होकर आनन्दोत्सव मनाने लगे। ब्रह्मा, शंकर, सनत्कुमार, भृगु आदि मुनि, पितर, सारे भूत, सिद्ध और विमानारोही देवगण भगवान के इस परम अद्भुत एवं अत्यन्त महान् कर्म का गान करते हुए अपने-अपने लोक को चले गये और सबने अदिति की भी बड़ी प्रशंसा की।

परीक्षित! तुम्हें मैंने भगवान की यह सब लीला सुनायी। इससे सुनने वालों के सारे पाप छूट जाते हैं। भगवान की लीलाएँ अनन्त हैं, उनकी महिमा अपार है। जो मनुष्य उसका पार पाना चाहता है, वह मानो पृथ्वी के परमाणुओं को गिन डालना चाहता है। भगवान के सम्बन्ध में मन्त्रद्रष्टा महर्षि वसिष्ठ ने वेदों में कहा है कि ‘ऐसा पुरुष न कभी हुआ, न है और न होगा जो भगवान की महिमा का पार पा सके’। देवताओं के आराध्यदेव अद्भुत लीलाधारी वामन भगवान के अवतार चरित्र का जो श्रवण करता है, उसे परमगति की प्राप्ति होती है। देवयज्ञ, पितृयज्ञ और मनुष्य यज्ञ किसी भी कर्म का अनुष्ठान करते समय जहाँ-जहाँ भगवान की इस लीला का कीर्तन होता है, वह कर्म सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है। यह बड़े-बड़े महात्माओं का अनुभव है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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