श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 22 श्लोक 12-23

अष्टम स्कन्ध: द्वाविंशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 12-23 का हिन्दी अनुवाद


श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! राजा बलि इस प्रकार कह ही रहे थे कि उदय होते हुए चन्द्रमा के समान भगवान के प्रेमपात्र प्रह्लाद जी वहाँ आ पहुँचे। राजा बलि ने देखा कि मेरे पितामह बड़े श्रीसम्पन्न हैं। कमल के समान कोमल नेत्र हैं, लंबी-लंबी भुजाएँ हैं, सुन्दर ऊँचे और श्यामल शरीर पर पीताम्बर धारण किये हुए हैं।

बलि इस समय वरुण पाश में बँधे हुए थे। इसलिये प्रह्लाद जी के आने पर जैसे पहले वे उनकी पूजा किया करते थे, उस प्रकार न कर सके। उनके नेत्र आँसुओं से चंचल हो उठे, लज्जा के मारे मुँह नीचा हो गया। उन्होंने केवल सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया। प्रह्लाद जी ने देखा कि भक्तवत्सल भगवान वहीं विराजमान हैं और सुनन्द, नन्द आदि पार्षद उनकी सेवा कर रहे हैं। प्रेम के उद्रेक से प्रह्लाद जी का शरीर पुलकित हो गया, उनकी आँखों में आँसू छलक आये। वे आनन्दपूर्ण हृदय से सिर झुकाये अपने स्वामी के पास गये और पृथ्वी पर सिर रखकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया।

प्रह्लाह जी ने कहा- 'प्रभो! आपने ही बलि को यह ऐश्वर्यपूर्ण इन्द्रपद दिया था, अब आज आपने ही उसे छीन लिया। आपका देना जैसा सुन्दर है, वैसा ही सुन्दर लेना भी। मैं समझता हूँ कि आपने इस पर बड़ी भारी कृपा की है, जो आत्मा को मोहित करने वाली राज्यलक्ष्मी से इसे अलग कर दिया। प्रभो! लक्ष्मी के मद से तो विद्वान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। उसके रहते भला, अपने वास्तविक स्वरूप को ठीक-ठीक कौन जान सकता है? अतः उस लक्ष्मी को छीनकर महान् उपकार करने वाले, समस्त जगत् के महान् ईश्वर, सबके हृदय में विराजमान और सबके परमसाक्षी श्रीनारायणदेव को मैं नमस्कार करता हूँ।'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! प्रह्लाद जी अंजलि बाँधकर खड़े थे। उनके सामने ही भगवान ब्रह्मा जी ने वामन भगवान से कुछ कहना चाहा। परन्तु इतने में ही राजा बलि की परमसाध्वी पत्नी विन्ध्यावली ने अपने पति को बँधा देखकर भयभीत हो भगवान के चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोड़, मुँह नीचा कर वह भगवान से बोली।

विन्ध्यावली ने कहा- 'प्रभो! आपने अपनी क्रीड़ा के लिये ही इस सम्पूर्ण जगत् की रचना की है। जो लोग कुबुद्धि हैं, वे ही अपने को इसका स्वामी मानते हैं। जब आप ही इसके कर्ता, भर्ता और संहर्ता हैं, तब आपकी माया से मोहित होकर अपने को झूठमूठ कर्ता मानने वाले निर्लज्ज आपको समर्पण क्या करेंगे?'

ब्रह्मा जी ने कहा- 'समस्त प्राणियों के जीवनदाता, उनके स्वामी और जगत्स्वरूप देवाधिदेव प्रभो! अब आप इसे छोड़ दीजिये। आपने इसका सर्वस्व ले लिया है, अतः अब यह दण्ड का पात्र नहीं है। इसने अपनी सारी भूमि और पुण्यकर्मों से उपार्जित स्वर्ग आदि लोक, अपना सर्वस्व तथा आत्मा तक आपको समर्पित कर दिया है एवं ऐसा करते समय इसकी बुद्धि स्थिर रही है, यह धैर्य से च्युत नहीं हुआ है। प्रभो! जो मनुष्य सच्चे हृदय से कृपणता छोड़कर आपके चरणों में जल का अर्ध्य देता है और केवल दूर्वादल से भी आपकी सच्ची पूजा करते है, उसे भी उत्तम गति की प्राप्ति होती है। फिर बलि ने तो बड़ी प्रसन्नता से धैर्य और स्थिरतापूर्वक आपको त्रिलोकी का दान कर दिया है। तब यह दुःख का भागी कैसे हो सकता है?'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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