श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 12-25

अष्टम स्कन्ध: अथैकोनविंशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 12-25 का हिन्दी अनुवाद


उनको कहीं न देखकर वह कहने लगा- मैंने सारा जगत् छान डाला, परन्तु वह मिला नहीं। अवश्य ही वह भ्रातृघाती उस लोक में चला गया, जहाँ जाकर फिर लौटना नहीं होता। बस, अब उससे वैरभाव रखने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वैर तो देह के साथ ही समाप्त हो जाता है। क्रोध का कारण अज्ञान है और अहंकार से उसकी वृद्धि होती है।

राजन! आपके पिता प्रह्लादनन्दन विरोचन बड़े ही ब्राह्मण भक्त थे। यहाँ तक कि उनके शत्रु देवताओं ने ब्राह्मणों का वेष बनाकर उनसे उनकी आयु का दान माँगा और उन्होंने ब्राह्मणों के छल को जानते हुए भी अपनी आयु दे डाली। आप भी उसी धर्म का आचरण करते हैं, जिसका शुक्राचार्य आदि गृहस्थ ब्राह्मण, आपके पूर्वज प्रह्लाद और दूसरे यशस्वी वीरों ने पालन किया है। दैत्येनद्र! आप मुँहमाँगी वस्तु देने वालों में श्रेष्ठ हैं। इसी से मैं आपसे थोड़ी-सी पृथ्वी-केवल अपने पैरों से तीन डग माँगता हूँ। माना कि आप सारे जगत् के स्वामी और बड़े उदार हैं, फिर भी मैं आपसे इससे अधिक नहीं चाहता। विद्वान पुरुष को केवल अपनी आवश्यकता के अनुसार ही दान स्वीकार करना चाहिये। इससे वह प्रतिग्रहजन्य पाप से बच जाता है।

राजा बलि ने कहा- 'ब्राह्मणकुमार! तुम्हारी बातें तो वृद्धों-जैसी हैं, परन्तु तुम्हारी बुद्धि अभी बच्चों की-सी ही है। अभी तुम हो भी तो बालक ही न, इसी से अपना हानि-लाभ नहीं समझ रहे हो। मैं तीनों लोकों का एकमात्र अधिपति हूँ और द्वीप-का-द्वीप दे सकता हूँ। जो मुझे अपनी वाणी से प्रसन्न कर ले और मुझसे केवल तीन डग भूमि माँगे-वह भी क्या बुद्धिमान कहा जा सकता है? ब्रह्मचारी जी! जो एक बार कुछ माँगने के लिये मेरे पास आ गया, उसे फिर कभी किसी से कुछ माँगने की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिये। अतः अपनी जीविका चलाने के लिये तुम्हें जितनी भूमि की आवश्यकता हो, उतनी मुझसे माँग लो।'

श्रीभगवान ने कहा- राजन! संसार के सब-के-सब प्यारे विषय एक मनुष्य की कामनाओं को भी पूर्ण करने में समर्थ नहीं हैं, यदि वह अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाला-संतोषी न हो। जो तीन पग भूमि से संतोष नहीं कर लेता, उसे नौ वर्षों से युक्त एक द्वीप भी दे दिया जाये तो भी वह संतुष्ट नहीं हो सकता। क्योंकि उसके मन में सातों द्वीप पाने की इच्छा बनी ही रहेगी।

मैंने सुना है कि पृथु, गय आदि नरेश सातों द्वीपों के अधिपति थे; परन्तु उतने धन और भोग की सामग्रियों के मिलने पर भी वे तृष्णा का पार न पा सके। जो कुछ प्रारब्ध से मिल जाये, उसी से संतुष्ट हो रहने वाला पुरुष अपना जीवन सुख से व्यतीत करता है। परन्तु अपनी इन्द्रियों को वश में न रखने वाला तीनों लोकों का राज्य पाने पर भी दुःखी ही रहता है। क्योंकि उसके हृदय में असंतोष की आग धधकती रहती है। धन और भोगों से संतोष न होना ही जीव के जन्म-मृत्यु के चक्कर में गिरने का कारण है तथा जो कुछ प्राप्त हो जाये, उसी में संतोष कर लेना मुक्ति का कारण है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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