श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 17 श्लोक 14-28

अष्टम स्कन्ध: सप्तदशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद


तुम्हारी इच्छा यह भी है कि तुम्हारे इन्द्रादि पुत्र जब शत्रुओं को मार डालें, तब तुम उनकी रोती हुई दुःखी स्त्रियों को अपनी आँखों से देख सको।

अदिति! तुम चाहती हो कि तुम्हारे पुत्र धन और शक्ति से समृद्ध हो जायें, उनकी कीर्ति और ऐश्वर्य उन्हें फिर से प्राप्त हो जायें तथा वे स्वर्ग पर अधिकार जमाकर पूर्ववत विहार करें। परन्तु देवि! वे असुर सेनापति इस समय जीते नहीं जा सकते, ऐसा मेरा निश्चय है; क्योंकि ईश्वर और ब्राह्मण इस समय उनके अनुकूल हैं। इस समय उनके साथ यदि लड़ाई छेड़ी जायेगी, तो उससे सुख मिलने की आशा नहीं है।

फिर भी देवि! तुम्हारे इस व्रत के अनुष्ठान से मैं बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिये मुझे इस सम्बन्ध में कोई-न-कोई उपाय सोचना ही पड़ेगा। क्योंकि मेरी आराधना व्यर्थ तो होनी नहीं चाहिये। उससे श्रद्धा के अनुसार फल अवश्य मिलता है। तुमने अपने पुत्रों की रक्षा के लिये ही विधिपूर्वक पयोव्रत से मेरी पूजा एवं स्तुति की है। अतः मैं अंशरूप से कश्यप के वीर्य में प्रवेश करूँगा और तुम्हारा पुत्र बनकर तुम्हारी सन्तान की रक्षा करूँगा। कल्याणी! तुम अपने पति कश्यप में मुझे इसी रूप में स्थित देखो और उन निष्पाप प्रजापति की सेवा करो। देवि! देखो, किसी के पूछने पर भी यह बात दूसरे को मत बतलाना। देवताओं का रहस्य जितना गुप्त रहता है, उतना ही सफल होता है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- इतना कहकर भगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये। उस समय अदिति यह जानकर कि स्वयं भगवान् मेरे गर्भ से जन्म लेने, अपनी कृतकृत्यता का अनुभव करने लगी। भला, यह कितनी दुर्लभ बात है! वह बड़े प्रेम से अपने पतिदेव कश्यप की सेवा करने लगी। कश्यप जी सत्यदर्शी थे, उनके नेत्रों से कोई बात छिपी नहीं रहती थी। अपने समाधि-योग से उन्होंने जान लिया कि भगवान का अंश मेरे अंदर प्रविष्ट हो गया है। जैसे वायु काठ में अग्नि का आधान करती है, वैसे ही कश्यप जी ने समाहित चित्त से अपनी तपस्या के द्वारा चिर-संचित वीर्य का अदिति में आधान किया। जब ब्रह्मा जी को यह बात मालूम हुई कि अदिति के गर्भ में तो स्वयं अविनाशी भगवान् आये हैं, तब वे भगवान के रहस्यमय नामों से उनकी स्तुति करने लगे।

ब्रह्मा जी ने कहा- समग्र कीर्ति के आश्रय भगवन! आपकी जय हो। अनन्त शक्तियों के अधिष्ठान! आपके चरणों में नमस्कार है। ब्रह्मण्यदेव! त्रिगुणों के नियामक! आपके चरणों में मेरे बार-बार प्रणाम हैं।

पृश्नि के पुत्ररूप में उत्पन्न होने वाले! वेदों के समस्त ज्ञान को अपने अंदर रखने वाले प्रभो! वास्तव में आप ही सबके विधाता हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। ये तीनों लोक आपकी नाभि में स्थित हैं। तीनों लोकों से परे वैकुण्ठ में आप निवास करते हैं। जीवों के अन्तःकरण में आप सर्वदा विराजमान रहते हैं। ऐसे सर्वव्यापक विष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ।

प्रभो! आप ही संसार के आदि, अन्त और इसलिये मध्य भी हैं। यही कारण है कि वेद अनन्त शक्तिपुरुष के रूप में आपका वर्णन करते हैं। जैसे गहरा स्रोत अपने भीतर पड़े हुए तिनके को बहा ले जाता है, वैसे ही आप कालरूप से संसार का धाराप्रवाह संचालन करते रहते हैं। आप चराचर प्रजा और प्रजापतियों को भी उत्पन्न करने वाले मूल कारण हैं। देवाधिदेव! जैसे जल में डूबते हुए के लिये नौका ही सहारा है, वैसे ही स्वर्ग से भगाये हुए देवताओं के लिये एकमात्र आप ही आश्रय हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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