श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 38-47

अष्टम स्कन्ध: द्वादशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 38-47 का हिन्दी अनुवाद


श्रीभगवान् ने कहा- 'देवशिरोमणे! मेरी स्त्रीरूपिणी माया से विमोहित होकर भी आप स्वयं ही अपनी निष्ठा में स्थित हो गये। यह बड़े ही आनन्द की बात है। मेरी माया अपार है। वह ऐसे-ऐसे हाव-भाव रचती है कि अजितेन्द्रिय पुरुष तो किसी प्रकार उससे छुटकारा पा ही नहीं सकते। भला, आपके अतिरिक्त ऐसा कौन पुरुष है, जो एक बार मेरी माया के फंदे में फँसकर फिर स्वयं ही उससे निकल सके। यद्यपि मेरी यह गुणमयी माया बड़ों-बड़ों को मोहित कर देती है, फिर भी अब यह आपको कभी मोहित नहीं करेगी। क्योंकि सृष्टि आदि के लिये समय पर उसे क्षोभित करने वाला काल मैं ही हूँ, इसलिये मेरी इच्छा के विपरीत रजोगुण आदि की सृष्टि नहीं कर सकती।'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! इस प्रकार भगवान् विष्णु ने भगवान् शंकर का सत्कार किया। तब उससे विदा लेकर एवं परिक्रमा करके वे अपने गणों के साथ कैलास को चले गये।

भरतवंशशिरोमणे! भगवान् शंकर ने बड़े-बड़े ऋषियों की सभा में अपनी अर्द्धांगिनी सती देवी से अपने विष्णुरूप की अंशभूता मायामयी मोहिनी का इस प्रकार बड़े प्रेम से वर्णन किया। ‘देवि! तुमने परम पुरुष परमेश्वर भगवान् विष्णु की माया देखी? देखो, यों तो मैं स्वतन्त्र हूँ, फिर भी उस माया से विवश होकर मोहित हो जाता हूँ। फिर दूसरे जीव तो परतन्त्र हैं ही; अतः वे मोहित हो जायें-इसमें कहना ही क्या है। जब मैं एक हजार वर्ष की समाधि से उठा था, तब तुमने मेरे पास आकर पूछा था कि तुम किसकी उपासना करते हो। वे यही साक्षात् सनातन पुरुष हैं। न तो काल ही इन्हें अपनी सीमा में बाँध सकता है और न वेद ही इनका वर्णन कर सकता है। इनका वास्तविक स्वरूप अनन्त और अनिर्वचनीय है’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- प्रिय परीक्षित! मैंने विष्णु भगवान् की यह ऐश्वर्यपूर्ण लीला तुमको सुनायी, जिसमें समुद्र मन्थन के समय अपनी पीठ पर मन्दराचल धारण करने वाले भगवान् का वर्णन है। जो पुरुष बार-बार इनका कीर्तन और श्रवण करता है, उसका उद्योग कभी और कहीं निष्फल नहीं होता। क्योंकि पवित्रकीर्ति भगवान् के गुण और लीलाओं का गान संसार के समस्त क्लेश और परिश्रम को मिटा देने वाला है। दुष्ट पुरुषों को भगवान् के चरणकमलों की प्राप्ति कभी हो नहीं सकती। वे तो भक्तिभाव से युक्त पुरुष को ही प्राप्त होते हैं। इसी से उन्होंने स्त्री का मायामय रूप धारण करके दैत्यों को मोहित किया और अपने चरणकमलों के शरणागत देवताओं को समुद्र मन्थन से निकले हुए अमृत का पान कराया। केवल उन्हीं की बात नहीं-चाहे जो भी उनके चरणों की शरण ग्रहण करे, वे उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण कर देते हैं। मैं उन प्रभु के चरणकमलों में नमस्कार करता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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