श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 16-31

अष्टम स्कन्ध: अथैकादशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद


उसी समय इन्द्र का सारथि मातलि हजार घोड़ों से जुता हुआ रथ ले आया और शक्तिशाली इन्द्र ऐरावत को छोड़कर तुरंत रथ पर सवार हो गये। दानवश्रेष्ठ जम्भ ने रणभूमि में मातलि के इस काम की बड़ी प्रशंसा की और मुसकराकर चमकता हुआ त्रिशूल उसके ऊपर चलाया। मातलि ने धैर्य के साथ इस असह्य पीड़ा को सह लिया। तब इन्द्र ने क्रोधित होकर अपने वज्र से जम्भ का सिर काट डाला।

देवर्षि नारद से जम्भासुर की मृत्यु समाचार जानकर उसके भाई-बन्धु नमुचि, बल और पाक झटपट रणभूमि में आ पहुँचे। अपने कठोर और मर्मस्पर्शी वाणी से उन्होंने इन्द्र को बहुत कुछ बुरा-भला कहा और जैसे बादल पहाड़ पर मूसलधार पानी बरसाते हैं, वैसे ही उनके ऊपर बाणों की झड़ी लगा दी। बल ने बड़े हस्तलाघव से एक साथ ही एक हजार बाण चलाकर इन्द्र के एक हजार घोड़ों को घायल कर दिया। पाक ने सौ बाणों से मातलि को और सौ बाणों से रथ के एक-एक अंग को छेद डाला। युद्धभूमि में यह बड़ी अद्भुत घटना हुई कि एक ही बार इतने बाण उसने चढ़ाये और चलाये। नमुचि ने बड़े-बड़े पंद्रह बाणों से, जिनमें सोने के पंख लगे हुए थे, इन्द्र को मारा और युद्धभूमि में वह जल से भरे बादल के समान गरजने लगा। जैसे वर्षाकाल के बादल सूर्य को ढक लेते हैं, वैसे ही असुरों ने बाणों की वर्षा से इन्द्र और उनके रथ तथा सारथि को भी चारों ओर से ढक दिया।

इन्द्र को न देखकर देवता और उनके अनुचर अत्यन्त विह्वल होकर रोने-चिल्लाने लगे। एक तो शत्रुओं ने उन्हें हरा दिया था और दूसरे अब उनका कोई सेनापति भी न रह गया था। उस समय देवताओं की ठीक वैसी ही अवस्था हो रही थी, जैसे बीच समुद्र में नाव टूट जाने पर व्यापारियों की होती है। परन्तु थोड़ी ही देर में शत्रुओं के बनाये हुए बाणों के पिंजड़े से घोड़े, रथ, ध्वजा और सारथि के साथ इन्द्र निकल आये। जैसे प्रातःकाल सूर्य अपनी किरणों से दिशा, आकाश और पृथ्वी को चमका देते हैं, वैसे ही इन्द्र के तेज से सब-के-सब जगमगा उठे। वज्रधारी इन्द्र ने देखा कि शत्रुओं ने रणभूमि में हमारी सेना को रौंद डाला है, तब उन्होंने बड़े क्रोध से शत्रु को मार डालने के लिये वज्र से आक्रमण किया।

परीक्षित! उस आठ धार वाले पैने वज्र से उन दैत्यों के भाई-बन्धुओं को भी भयभीत करते हुए उन्होंने बल और पाक के सिर काट लिये। परीक्षित! अपने भाइयों को मरा हुआ देख नमुचि को बड़ा शोक हुआ। वह क्रोध के कारण आपे से बाहर होकर इन्द्र को मार डालने के लिये जी-जान से प्रयास करने लगा। ‘इन्द्र! अब तुम बच नहीं सकते’-इन प्रकार ललकारते हुए एक त्रिशूल उठाकर वह इन्द्र पर टूट पड़ा। वह त्रिशूल फौलाद का बना हुआ था, सोने के आभूषणों से विभूषित था और उसमें घण्टे लगे हुए थे। नमुचि ने क्रोध के मारे सिंह के समान गरजकर इन्द्र पर वह त्रिशूल चला दिया। परीक्षित! इन्द्र ने देखा कि त्रिशूल बड़े वेग से मेरी ओर आ रहा है। उन्होंने अपने बाणों से आकाश में ही उसका हजारों टुकड़े कर दिये और इसके बाद देवराज इन्द्र ने बड़े क्रोध से उसका सिर काट लेने के लिये उसकी गर्दन पर वज्र मारा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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