प्रथम स्कन्ध: पंचम अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः पंचम अध्यायः श्लोक 23-36 का हिन्दी अनुवाद
महामुने! जब भगवान में मेरी रुचि हो गयी, तब उन मनोहर कीर्ति प्रभु में मेरी बुद्धि भी निश्चल हो गयी। उस बुद्धि से मैं इस सम्पूर्ण सत् और असत्-रूप जगत् को अपने परब्रह्म स्वरूप आत्मा में माया से कल्पित देखने लगा। इस प्रकार शरद् और वर्षा- इन दो ऋतुओं में तीनों समय उन महात्मा मुनियों ने श्रीहरि के निर्मल यश का संकीर्तन किया और मैं प्रेम से प्रत्येक बात सुनता रहा। अब चित्त के रजोगुण और तमोगुण के नाश करने वाली भक्ति का मेरे हृदय में प्रादुर्भाव हो गया। मैं उनका बड़ा ही अनुरागी था, विनयी था; उन लोगों की सेवा से मेरे पाप नष्ट हो चुके थे। मेरे हृदय में श्रद्धा थी, इन्द्रियों में संयम था एवं शरीर, वाणी और मन से मैं उनका आज्ञाकारी था। उन दीनवत्स महात्माओं ने जाते समय कृपा करके मुझे उस गुह्तम ज्ञान का उपदेश किया, जिसका उपदेश स्वयं भगवान ने अपने श्रीमुख से किया है। उस उपदेश से ही जगत् के निर्माता भगवान श्रीकृष्ण की माया के प्रभाव को मैं जान सका, जिसके जान लेने पर उनके परमपद की प्राप्ति हो जाती है। सत्यसंकल्प व्यास जी! पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के प्रति समस्त कर्मों को समर्पित कर देना ही संसार के तीनों तापों की एकमात्र ओषधि है, यह बात मैंने आपको बतला दी। प्राणियों को जिस पदार्थ के सेवन से जो रोग हो जाता है, वही पदार्थ चिकित्सा विधि के अनुसार प्रयोग करने पर क्या उस रोग को दूर नहीं करता? इसी प्रकार यद्यपि सभी कर्म मनुष्यों को जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्र में डालने वाले हैं, तथापि जब वे भगवान को समर्पित कर दिये जाते हैं, तब उनका कर्मपना ही नष्ट हो जाता है। इस लोक में जो शास्त्रविहित कर्म भगवान की प्रसन्नता के लिये किये जाते हैं, उन्हीं से पराभक्ति युक्त ज्ञान की प्राप्ति होती है। उस भगवदर्थ कर्म के मार्ग में भगवान के आज्ञानुसार आचरण करते हुए लोग बार-बार भगवान श्रीकृष्ण के गुण और नामों का कीर्तन तथा स्मरण करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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