प्रथम स्कन्ध: सप्तदश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः सप्तदश अध्यायः श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद
सूत जी कहते हैं- ऋषिश्रेष्ठ शौनक जी! धर्म का यह प्रवचन सुनकर सम्राट् परीक्षित बहुत प्रसन्न हुए, उनका खेद मिट गया। उन्होंने शान्तचित्त होकर उनसे कहा- परीक्षित ने कहा- धर्म का तत्त्व जानने वाले वृषभदेव! आप धर्म का उपदेश कर रहे हैं। अवश्य ही आप वृषभ के रूप में स्वयं धर्म हैं। (आपने अपने को दुःख देने वाले का नाम इसलिये नहीं बताया है कि) अधर्म करने वाले को जो नरकादि प्राप्त होते हैं, वे ही चुगली करने वाले को भी मिलते हैं। अथवा यही सिद्धान्त निश्चित है कि प्राणियों के मन और वाणी से परमेश्वर की माया के स्वरूप का निरूपण नहीं किया जा सकता। धर्मदेव! सत्ययुग में आपके चार चरण थे- तप, पवित्रता, दया और सत्य। इस समय अधर्म के अंश गर्व, आसक्ति और मद से तीन चरण नष्ट हो चुके हैं। अब आपका चौथा चरण केवल ‘सत्य’ ही बच रहा है। उसी के बल पर आप जी रहे हैं। असत्य से पुष्ट हुआ यह अधर्मरूप कलियुग उसे भी ग्रास कर लेना चाहता है। ये गौ माता साक्षात् पृथ्वी हैं। भगवान ने इनका भारी बोझ उतार दिया था और ये उनके राशि-राशि सौन्दर्य बिखेरने वाले चरणचिह्नों से सर्वत्र उत्सवमयी हो गयी थीं। अब ये उनसे बिछुड़ गयी हैं। वे साध्वी अभागिनी के समान नेत्रों में जल भरकर यह चिन्ता कर रही हैं कि अब राजा का स्वाँग बनाकर ब्राह्मणद्रोही शूद्र मुझे भोगेंगे। महारथी परीक्षित ने इस प्रकार धर्म और पृथ्वी को सान्त्वना दी। फिर उन्होंने अधर्म के कारणरूप कलियुग को मारने के लिये तीक्ष्ण तलवार उठायी। कलियुग ताड़ गया कि ये तो अब मुझे मार ही डालना चाहते हैं; अतः झटपट उसने अपने राजचिह्न उतार डाले और भयविह्वल होकर उनके चरणों में अपना सिर रख दिया। परीक्षित बड़े यशस्वी, दीनवत्सल और शरणागतरक्षक थे। उन्होंने जब कलियुग को अपने पैरों पर पड़े देखा तो कृपा करके उसको मारा नहीं, अपितु हँसते हुए-से उससे कहा। परीक्षित बोले- जब तू हाथ जोड़कर शरण में आ गया, तब अर्जुन के यशस्वी वंश में उत्पन्न हुए किसी भी वीर से तुझे कोई भय नहीं है। परन्तु तू अधर्म का सहायक है, इसलिये तुझे मेरे राज्य में बिलकुल नहीं रहना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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