गीता कर्म योग 6

परन्तु योग शब्द के उक्त सामान्य अर्थों में से ही; जैसे साधन, कुशलता, युक्ति आदि से ही काम नहीं चल सकता, क्योंकि वक्ता की इच्छा के अनुसार यह साधन सन्न्यास का हो सकता है, कर्म और चित्त–निरोध का हो सकता है, और मोक्ष का अथवा और भी किसी का हो सकता है। उदाहरणार्थ; कहीं कहीं गीता में अनेक प्रकार की व्यक्त सृष्टि निर्माण करने की ईश्वरी कुशलता और अद्भुत सामर्थ्य को 'योग' कहा गया है[1]; और इसी अर्थ में भगवान को 'योगेश्वर' कहा गया है।[2] परन्तु यह कुछ गीता के 'योग' शब्द का मुख्य अर्थ नहीं है। इसलिए यह बात स्पष्ट रीति से प्रगट कर देने के लिए कि योग शब्द से किस विशेष प्रकार की कुशलता, साधन, युक्ति अथवा उपाय को गीता में विवक्षित समझना चाहिए, उस ग्रंथ में ही योग शब्द की यह निश्चित व्याख्या की गई है –

योगः कर्मसु कौशलम्[3]
अर्थात; कर्म करने की किसी विशेष प्रकार की कुशलता, युक्ति, चतुराई अथवा शैली को योग कहते हैं। शांकर भाष्य में भी 'कर्मसु कौशलम्' का यही अर्थ लिया गया है – 'कर्म में स्वभाव सिद्ध रहने वाले बंधन को तोड़ने की युक्ति।' यदि सामान्यतः देखा जाए तो एक ही कर्म को करने के लिए अनेक योग और उपाय होते हैं। परन्तु उनमें से जो उपाय या साधन उत्तम हो, उसी को योग कहते हैं। जैसे द्रव्य उपार्जन करना एक कर्म है; इसके अनेक उपाय या साधक हैं जैसे कि – चोरी करना, जालसाजी करना, भीख माँगना, सेवा करना, ऋण लेना, मेहनत करना आदि, यद्यपि धातु के अर्थानुसार इनमें से हर एक को योग कह सकते हैं तथापि यथार्थ में 'द्रव्य–प्राप्ति योग' उसी उपाय को कहते हैं जिससे हम अपनी स्वतंत्रता रखकर मेहनत करते हुए धर्म प्राप्त कर सकें। जब स्वयं भगवान ने योग शब्द की निश्चित और स्वतंत्र व्याख्या गीता में कर दी है-

'योगः कर्मसु कौशलम्'– 'अर्थात' कर्म करने की एक प्रकार की विशेष युक्ति को योग कहते हैं; तब सच पूछो तो इस शब्द के मुख्य अर्थ के विषय में कुछ भी शंका नहीं रहनी चाहिए। परन्तु स्वयं भगवान की बतलाई हुई इस व्याख्या पर ध्यान न देकर गीता के अनेक टीकाकारों ने योग शब्द के अर्थ की ख़ूब खींचातानी की है और गीता का मथितार्थ भी मनमाना निकाला है। अतएव इस भ्रम को दूर करने के लिए योग शब्द का कुछ और भी स्पष्टीकरण होना चाहिए। यह शब्द पहले पहल गीता के दूसरे अध्याय में आया है और वहीं इसका स्पष्ट अर्थ भी बतला दिया गया है।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 7.25; 9.5; 10.7; 11.8
  2. गीता 18.75
  3. गीता 2.50

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः