गीता कर्म योग 10

जब एक बार यह सिद्ध हो गया कि गीता में 'योग' का प्रधान अर्थ कर्मयोग और 'योगी' का प्रधान अर्थ कर्मयोगी है, तो फिर यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय क्या है। स्वयं भगवान अपने उपदेश को 'योग' कहते हैं[1]; बल्कि छठवें (6.33) अध्याय में अर्जुन ने और गीता के अंतिम उपसंहार (18.75) में संजय ने भी गीता के उपदेश को योग ही कहा है। इसी तरह गीता के प्रत्येक अध्याय के अंत में जो अध्याय समाप्ति दर्शक संकल्प हैं, उनमें भी साफ़-साफ़ कह दिया है कि गीता का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय 'योगशास्त्र' है। परन्तु जान पड़ता है कि उक्त संकल्प के शब्दों के अर्थ पर किसी भी टीकाकार ने ध्यान नहीं दिया। आरंभ के दो पदों श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु के बाद इस संकल्प में दो शब्द 'ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे' और भी जोड़े गए हैं।

  1. पहले दो शब्दों का अर्थ है – भगवान से गाए गए उपनिषद में; और
  2. पिछले दो शब्दों का अर्थ ब्रह्मविद्या का योगशास्त्र अर्थात कर्मयोग शास्त्र है, जो कि इस गीता का विषय है।

ब्रह्मविद्या और ब्रह्मज्ञान एक ही बात है और इसके प्राप्त हो जाने पर ज्ञानी पुरुष के लिए दो निष्ठाएँ या मार्ग खुले हुए हैं।[2] एक सांख्य अथवा सन्न्यास मार्ग– अर्थात वह मार्ग जिसमें कर्मों का त्याग न करके ऐसी युक्ति से कर्मयोग करते रहना चाहिए कि जिससे मोक्ष–प्राप्ति में कुछ भी बाधा न हो। पहले मार्ग का दूसरा नाम 'ज्ञान–निष्ठा' भी है जिसका विवेचन उपनिषदों में अनेक ऋषियों ने और अन्य ग्रंथकारों ने भी किया है। परंतु ब्रह्मविद्या के अंतर्गत कर्मयोग का या योगशास्त्र का तात्विक विवेचन भागवद्गीता के सिवाय अन्य ग्रंथों में नहीं है। इस बात का उल्लेख पहले किया जा चुका है कि अध्याय समाप्ति दर्शक संकल्प गीता की सब प्रतियों में पाया जाता है और इससे प्रगट होता है कि गीता की सब टीकाओं के रचे जाने के पहले ही उसकी रचना हुई होगी। इस संकल्प के रचयिता ने इस संकल्प में 'ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे' इन दो पदों को व्यर्थ ही नहीं जोड़ दिया है; किन्तु उसने गीताशास्त्र के प्रतिपाद्य विषय की अपूर्वता दिखाने ही के लिए उक्त पदों को उस संकल्प में आधार और हेतु सहित स्थान दिया है। अतः इस बात का भी सहज निर्णय हो सकता है कि गीता पर अनेक सांप्रदायिक टीकाओं के होने के पहले, गीता का तात्पर्य कैसे और क्या समझा जाता था। यह हमारे सौभाग्य की बात है कि इस कर्मयोग का प्रतिपादन स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने ही किया है, जो इस योगमार्ग के प्रवर्तक और इन सब योगों के साक्षात ईश्वर योगेश्वर=योग+ईश्वर है; और लोकहित के लिए उन्होंने अर्जुन को उसका रहस्य बतलाया है। गीता के 'योग' और 'योगशास्त्र' शब्दों से हमारे 'कर्मयोग' और 'कर्मयोग शास्त्र' शब्द कुछ बड़े हैं सही; परन्तु अब हमने कर्मयोग शास्त्र सरीखा बड़ा नाम ही इस ग्रंथ और प्रकरण को देना इसलिए पसंद किया है कि जिसमें गीता के प्रतिपाद्य विषय के संबंध में कुछ भी संदेह न रह जाए।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 4.1–3
  2. गीता 3.3

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