गीता कर्म योग 14

नित्य व्यवहार में 'धर्म' शब्द का उपयोग केवल 'पारलौकिक सुख का मार्ग' इसी अर्थ में किया जाता है। जब हम किसी से प्रश्न करते हैं कि 'तेरा कौन–सा धर्म है?' तब उससे हमारे पूछने का यही हेतु होता है कि तू अपने पारलौकिक कल्याण के लिए किस मार्ग – वैदिक, बौद्ध, जैन, ईसाई, मुहम्मदी या पारसी से चलता है; और वह हमारे प्रश्न के अनुसार ही उत्तर देता है। इसी तरह स्वर्ग–प्राप्ति के लिए साधनभूत यज्ञ–याग आदि वैदिक विषयों की मीमांसा करते समय 'अथातो धर्मजिज्ञासा' आदि धर्मसूत्रों में भी धर्म शब्द का यही अर्थ लिया गया है। परन्तु 'धर्म' शब्द का इतना ही संकुचित अर्थ नहीं है। इसके सिवाय राजधर्म, प्रजाधर्म, कुलधर्म, मित्रधर्म इत्यादि सांसारिक नीति–बंधनों को भी धर्म कहते हैं। धर्म शब्द के दो अर्थों को यदि पृथक करके दिखलाना हो तो पारलौकिक धर्म को 'मोक्षधर्म' अथवा सिर्फ़ 'मोक्ष' और व्यावहारिक धर्म अथवा केवल धर्म कहा करते हैं। उदाहरणार्थ; चतुर्विध पुरुषार्थों की गणना करते समय हम लोग 'धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष’' कहा करते हैं। इसके पहले धर्म शब्द में ही यदि मोक्ष का समावेश हो जाता तो अन्त में मोक्ष को पृथक पुरुषार्थ बतलाने की आवश्यकता न रह जाती। अर्थात्; यह कहना पड़ता है कि 'धर्म' पद से इस स्थान पर संसार के सैकड़ों नीतिधर्म ही शास्त्रकारों को अभिप्रेत हैं।

इन्हीं को हम लोग आजकल कर्त्तव्य, कर्म, नीति, नीतिधर्म अथवा सदाचरण कहते हैं। परन्तु प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में 'नीति' अथवा 'नीतिशास्त्र' शब्दों का उपयोग विशेष करके राजनीति के लिए ही किया जाता है, इसलिए पुराने जमाने में कर्त्तव्य–कर्म अथवा सदाचार के सामान्य विवेचन को ‘नीति–प्रवचन’ न कहकर 'धर्म–प्रवचन' कहा करते थे। परन्तु 'नीति' और 'धर्म' दो शब्दों का यह पारिभाषिक भेद सभी संस्कृत ग्रंथों में नहीं माना गया है। इसलिए हमने भी इस ग्रंथ में 'नीति', 'कर्त्तव्य' और 'धर्म' शब्दों का उपयोग एक ही अर्थ में किया गया है; और मोक्ष का विचार जिस स्थान पर करना है, उस प्रकरण के 'अध्यात्म' और 'भक्तिमार्ग' ये स्वतंत्र नाम रखे हैं। महाभारत में 'धर्म' शब्द अनेक स्थानों पर आया है, और जिस स्थान पर कहा गया है कि 'किसी को कोई काम करना धर्म–संगत है' उस स्थान पर धर्म शब्द से कर्त्तव्य–शास्त्र अथवा तत्कालीन समाज–व्यवस्था शास्त्र ही का अर्थ पाया जाता है; तथा जिस स्थान में पारलौकिक कल्याण में मार्ग बतलाने का प्रसंग आया है, उस स्थान पर अर्थात् शांतिपर्व के उत्तरार्ध में 'मोक्ष–धर्म' इस विशिष्ट शब्द की योजना की गई है। इसी तरह मन्वादि स्मृति–ग्रंथों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के विशिष्ट कर्मों, अर्थात् चारों वर्णों के कर्मों का वर्णन करते समय केवल धर्म शब्द का ही अनेक स्थानों पर कई बार उपयोग किया गया है। और, भगवद्गीता में भी जब भगवान अर्जुन से यह कह कर लड़ने के लिए कहते हैं कि स्वधर्ममपि चाऽवेक्ष्य[1] तब, और इसके बाद

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः[2]

इस स्थान पर भी 'धर्म' शब्द 'इस लोक के चातुर्वर्ण्यं के धर्म' के अर्थ के रूप में ही प्रयुक्त हुआ है। पुराने जमाने के ऋषियों ने श्रम–विभाग रूप चातुर्वर्ण्य संस्था इसलिए चलाई गई थी कि समाज के सब व्यवहार सरलता से होते जाएं, किसी एक विशिष्ट व्यक्ति या वर्ग पर ही सारा बोझ न पड़ने पाए और समाज का सभी दिशाओं से संरक्षण और पोषण भली-भाँति होता रहे। यह बात भिन्न है कि कुछ समय के बाद चारों वर्णों के लोग केवल जाति–मात्रोपजीवी हो गए; अर्थात् सच्चे स्वकर्म को भूलकर वे केवल नामधारी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र हो गए। इसमें संदेह नहीं है कि आरंभ में यह व्यवस्था समाज धारणार्थ ही की गई थी; और यदि चारों वर्णों में से कोई भी एक वर्ण अपना धर्म अर्थात् कर्त्तव्य छोड़ दे, अर्थात् यदि कोई वर्ण समूल नष्ट हो जाए और उसकी स्थानपूर्ति दूसरे लोगों से न की जाए तो कुल समाज उतना ही पंगु होकर धीरे–धीरे नष्ट भी होने लग जाता है अथवा वह निष्कृट अवस्था में तो अवश्य ही पहुँच जाता है। यद्यपि यह बात सच है कि यूरोप में ऐसे अनेक समाज हैं जिनका अभ्युदय चातुर्वर्ण्य व्यवस्था चाहे न हो, परन्तु चारों वर्णों के सब धर्म, ज्ञाति–रूप से नहीं तो गुण–विभाग रूप ही से जागृत अवश्य रहते हैं।

सारांश, जब हम धर्म शब्द का प्रयोग व्यावहारिक दृष्टि से करते हैं तब हम यही देखा करते हैं कि सब समाज का धारण और पोषण कैसे होता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 2.31
  2. गीता. 3.35

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