गीता कर्म योग 15

मनु ने कहा है कि – असुखोदर्क अर्थात जिसका कारण दुःख कारक होता है उस धर्म को छोड़ देना चाहिए[1] और शांतिपर्व के सत्यानृताध्याय[2] में धर्म–अधर्म का विवेचन करते हुए भीष्म और उसके पूर्व कर्ण पर्व में श्रीकृष्ण कहते हैं किः–

धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः।
यत्स्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥


'धर्म' शब्द 'धृ' अर्थात 'धारण करना' धातु से बना है। धर्म से ही सब प्रजा बँधी हुई है। यह निश्चय किया गया है कि जिससे (सब प्रजा का) धारण होता है वही धर्म है।'[3] यदि यह धर्म छूट जाए तो समझ लेना चाहिए कि समाज के सारे बंधन भी टूट गए, और यदि समाज के बंधन टूटे तो आकर्षण–शक्ति के बिना आकाश में सूर्यादि ग्रहमालाओं की जो दशा हो जाती है अथवा समुद्र में मल्लाह के बिना नाव की जो दशा होती है, ठीक वही दशा समाज की भी हो जाती है। इसलिए उक्त शोचनीय अवस्था में पड़कर समाज को नाश से बचाने के लिए व्यास जी ने कई स्थानों पर कहा है कि, 'यदि अर्थ या द्रव्य पाना हो तो 'धर्म के द्वारा' अर्थात् समाज की रचना को न बिगाड़ते हुए प्राप्त करो, और यदि काम आदि वासनाओं को तृप्त करना हो तो वह भी 'धर्म से ही’ करो।' महाभारत के अन्त में यही कहा है किः–

ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येषः न च कश्चिच्छृणोति माम्।
धर्मादर्थश्च कामश्च स धर्मः किं न सेव्यते॥


'अरे! भुजा उठा कर मैं चिल्ला रहा हूँ, परन्तु कोई भी नहीं सुनता! धर्म से ही अर्थ और काम की प्राप्ति होती है, इसलिए इस प्रकार के धर्म का आचरण तुम क्यों नहीं करते हो?' अब इससे पाठकों के ध्यान में यह बात अच्छी तरह जम जाएगी कि महाभारत में जिस धर्म दृष्टि से पाँचवां वेद अथवा 'धर्म–संहिता' मानते हैं, उस 'धर्म–संहिता' शब्द के 'धर्म' शब्द का मुख्य अर्थ क्या है। यही कारण है कि पूर्व मीमांसा और उत्तरमीमांसा दोनों ही पारलौकिक अर्थ के प्रतिपादक ग्रंथों के साथ ही धर्मग्रंथ के नाते से नारायणं नमस्कृत्य इन प्रतीक शब्दों के द्वारा महाभारत का भी समावेश ब्रह्मयज्ञ के नित्य पाठ में कर दिया गया है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनुस्मृति, 4.176
  2. शान्ति पर्व, 109.12
  3. महाभारत कर्ण. 69.59

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