गीता कर्म योग 12

3. परन्तु जब यह माना जाता है कि जड़ सृष्टि के हज़ारों जड़ पदार्थों में हज़ारों स्वतंत्र देवता नहीं हैं; किन्तु बाहरी सृष्टि के सब व्यवहारों को चलाने वाली मनुष्य के शरीर में आत्म–स्वरूप से रहने वाली और मनुष्य को सारी सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करा देने वाली एक ही चित शक्ति है जो कि इंद्रियातीत है और जिसके द्वारा ही इस जगत का सारा व्यवहार चल रहा है; तब उस विचार पद्धति को आध्यात्मिक विवेचन कहते हैं। उदाहरणार्थ; अध्यात्मवादियों का मत है कि सूर्य, चन्द्रमा आदि का व्यवहार यहाँ तक कि वृक्षों के पत्तों का हिलना भी, इसी अचिन्त्य शक्ति की प्रेरणा से हुआ करता है; सूर्य, चन्द्र आदि में या अन्य स्थानों में भिन्न भिन्न तथा स्वतंत्र देवता नहीं हैं। प्राचीन काल से किसी भी विषय का विवेचन करने के लिए ये तीन मार्ग प्रचलित हैं और इनका उपयोग उपनिषद ग्रंथों में भी किया गया है। उदाहरणार्थ; ज्ञानेन्द्रियाँ श्रेष्ठ हैं या प्राण श्रेष्ठ हैं, इस बात का विचार करते समय बृहदारण्यक आदि उपनिषदों में एक बार उक्त इन्द्रियों के अग्नि आदि देवताओं को और दूसरा बार उनके सूक्ष्म रूपों (अध्यात्म) को लेकर उनके बलाबल का विचार किया गया है[1] और गीता के सातवें अध्याय के अन्त में तथा आठवें के आरम्भ में ईश्वर के स्वरूप का जो विचार बतलाया गया है, वह भी इसी दृष्टि से किया गया है। अध्यात्मविद्या विद्यानाम्[2] इस वाक्य के अनुसार हमारे शास्त्रकारों ने उक्त तीन मार्गों में से आध्यात्मिक विवरण को ही अधिक महत्त्व दिया है।

आजकल उपर्युक्त तीन शब्दों (आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक) के अर्थ को थोड़ा सा बदलकर प्रसिद्ध आधिभौतिक फ्रेञ्च पंडित कोंट[3] ने आधिभौतिक विवेचन को ही अधिक महत्त्व दिया है। उनका कहना है कि सृष्टि के मूल तत्त्व को खोजते रहने से कुछ लाभ नहीं है; यह तत्त्व अगम्य है अर्थात इसको समझ लेना कभी भी संभव नहीं। इसलिए इसकी कल्पित नींव पर किसी शास्त्र की इमारत को खड़ा कर देना न तो संभव है और न ही उचित। असभ्य और जंगली मनुष्यों ने पहले पहल जब पेड़, बादल और ज्वालामुखी पर्वत आदि को देखा, तब उन लोगों ने अपने भोलेपन से इन सब पदार्थों को देवता ही मान लिया। यह कोंट के मतानुसार ‘आधिदैविक’ विचार हो चुका। परन्तु मनुष्यों ने उक्त कल्पनाओं को शीघ्र ही त्याग दिया; वे समझने लगे कि इन सब पदार्थों में कुछ न कुछ आत्मतत्त्व अवश्य भरा हुआ है। कोंट के मतानुसार मानवी ज्ञान की उन्नति की यह दूसरी सीढ़ी है। इसे वह ‘आध्यात्मिक’ कहता है। परन्तु जब इस रीति से सृष्टि का विचार करने पर भी प्रत्यक्ष उपयोगी शास्त्रीय ज्ञान की कुछ वृद्धि नहीं हो सकी, तब अंत में मनुष्य सृष्टि के पदार्थों के दृश्य गुण–धर्मों का ही और भी अधिक विचार करने लगा, जिससे वह रेल और तार सरीखे उपयोगी आविष्कारों को ढूँढ़ कर बाह्य सृष्टि पर अपना अधिक प्रभाव जमाने लग गया है। इस मार्ग को कोंट ने ‘आधिभौतिक’ नाम दिया है।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बृहदारण्यकोपनिषद 1.5.21 और 22; छान्दोग्य उपनिषद 1.2 और 3; कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद 2.8
  2. गीता. 10.32
  3. फ्रांस देश में ऑगस्ट कोंट (Auguste Comte) नामक एक बड़ा पंडित गत शताब्दी में हो चुका है। इसने समाजशास्त्र पर एक बहुत बड़ा ग्रंथ लिखकर बतलाया है कि समाज रचना का शास्त्रीय रीति से किस प्रकार विवेचन करना चाहिए। अनेक शास्त्रों की आलोचना करके इसने यह निश्चय किया है कि किसी भी शास्त्र को ले लो, उसका विवेचन पहले पहल Theological पद्धति से किया जाता है; फिर Metaphysical पद्धति से होता है और अन्त में उसको Positive स्वरूप मिलता है। इन्हीं तीन पद्धतियों को हमने इस ग्रंथ में आधिदैविक, आध्यात्मिक और आधिभौतिक; ये तीन प्राचीन नाम दिए हैं। ये पद्धतियाँ कुछ कोंट की निकाली हुई नहीं हैं; ये सब पुरानी ही हैं। तथापि उसने उनका ऐतिहासिक क्रम नई रीति से बाँधा है और उनमें आधिभौतिक (Positive) पद्धति को ही श्रेष्ठ बतलाया है; बस इतना ही कोंट का नया शोध है। कोंट के अनेक ग्रंथों का अंग्रेज़ी में भाषान्तर हो गया है।"

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