गीता कर्म योग 3

भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में जिन यज्ञ–याग आदि काम्य कर्मों का वर्णन किया गया है –

वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः[1]

वे ब्रह्मज्ञान के बिना किए जाने वाले उपर्युक्त यज्ञ–याग आदि कर्म ही हैं। इसी तरह यह भी मीमांसकों ही के मत का अनुकरण है कि

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः[2],
अर्थात; यज्ञार्थ किए गए कर्म बंधक नहीं हैं, शेष सब कर्म बंधक हैं। इन यज्ञ–याग आदि वैदिक कर्मों के अतिरिक्त, अर्थात् श्रौत कर्मों के अतिरिक्त और भी चातुर्वरार्य के भेदानुसार दूसरे आवश्यक कर्म मनुस्मृति आदि धर्मग्रंथों में वर्णित हैं; जैसे क्षत्रिय के लिए युद्ध और वैश्य के लिए वाणिज्य। पहले पहल इन वर्णाश्रम कर्मों का प्रतिपादन स्मृति–ग्रंथों में किया गया था, इसलिए इन्हें ‘स्मार्त्त कर्म’ या ‘स्मार्त्त यज्ञ’ भी कहते हैं। इन श्रौत और स्मार्त्त कर्मों के सिवाय और भी धार्मिक कर्म हैं जैसे व्रत, उपवास आदि। इनका विस्तृत प्रतिपादन पहले पहल सिर्फ़ पुराणों में किया गया है, इसलिए इन्हें 'पौराणिक कर्म' कह सकेंगे। इन सब कर्मों के और भी तीन ‘नित्य, नैमित्तिक और काम्य’ भेद किए गए हैं। स्नान, संध्या आदि जो हमेशा किए जाने वाले कर्म हैं उन्हें नित्यकर्म कहते हैं। इनके करने से कुछ विशेष फल अथवा अर्थ की सिद्धि नहीं होती, परन्तु न करने से दोष अवश्य लगता है। नैमित्तिक कर्म उन्हें कहते हैं जिन्हें पहले किसी कारण के उपस्थित हो जाने से करना पड़ता है, जैसे अनिष्ट ग्रहों की शान्ति, प्रायश्चित आदि। जिसके लिए हम शान्ति और प्रायश्चित करते हैं, वह निमित्त कारण यदि पहले न हो गया हो तो हमें नैमित्तिक कर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं होती। जब हम कुछ विशेष इच्छा रखकर उसकी सफलता के लिए शास्त्रानुसार कोई कर्म करते हैं तब उसे काम्य–कर्म कहते हैं; जैसे वर्षा होने के लिए या पुत्रप्राप्ति के लिए यज्ञ करना। नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्मों के सिवाय और भी कर्म हैं, जैसे मदिरापान इत्यादि जिन्हें शास्त्रों ने त्याज्य कहा है; इसलिए ये कर्म निषिद्ध कहलाते हैं।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 2.42
  2. गीता. 3.9

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