शास्त्र का यही लक्षण भी है कि-
अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम्
अर्थात अनेक शंकाओं के उत्पन्न होने पर सबसे पहने उन विषयों के मिश्रण को अलग अलग कर दे जो समझ में नहीं आ सकते हैं, फिर उसके अर्थ को सुगम और स्पष्ट कर दे, और जो बातें आँखों से देख न पड़ती हों, उनका अथवा आगे होने वाली बातों का भी यथार्थ ज्ञान करा दे। जब हम इस बात को सोचते हैं कि ज्योतिष शास्त्र के सीखने से आगे होने वाले ग्रहणों का भी सब हाल मालूम हो जाता है, जब उक्त लक्षण के 'परोक्षार्थस्य दर्शकम्' इस दूसरे भाग की सार्थकता अच्छी तरह देख पड़ती है। परन्तु अनेक संशयों का समाधान करने के लिए पहले यह जानना चाहिए कि वे कौन सी शंकाएँ हैं। इसलिए प्राचीन और अर्वाचीन ग्रंथकारों की यह रीति है कि किसी भी शास्त्र का सिद्धान्त पक्ष बतलाने के पहले, उस विषय में जितने पक्ष हो गए हों; उनका विचार करके उनके दोष और उनकी न्यूनताएँ दिखलाई जाती हैं। इसी रीति को स्वीकार कर गीता में कर्म–अकर्म निर्णय के लिए प्रतिपादन किया हुआ सिद्धान्त पक्षीय योग अर्थात युक्ति बतलाने के पहले इसी काम के लिए जो अन्य युक्तियाँ पंडित लोग बतलाया करते हैं, उन पर भी विचार करें।
यह बात सच है कि ये युक्तियाँ हमारे यहाँ पहले विशेष प्रचार में न थीं; विशेष करके परिश्रमी पंडितों ने ही वर्तमान समय में उनका प्रचार किया है। परन्तु इतने ही से यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी चर्चा इस ग्रंथ में न की जाए। क्योंकि न केवल तुलना ही के लिए, किन्तु गीता के आध्यात्मिक कर्मयोग का महत्त्व ध्यान में आने के लिए भी इन युक्तियों को संक्षेप में भी क्यों न हो, जान लेना अत्यंत आवश्यक है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज