गीता कर्म योग 20

अब यदि महाजन का अर्थ 'बड़े बड़े सदाचारी पुरुष’ लिया जाए, और यही अर्थ उक्त श्लोक में अभिप्रेत है तो उन महा–जनों के आचरण मे भी एकता कहाँ है? निष्पाप श्री रामचन्द्र ने अग्नि द्वारा शुद्ध हो जाने पर भी अपनी पत्नी का त्याग केवल लोकापवाद ही के लिए किया; और सुग्रीव को अपने पक्ष में मिलाने के लिए उससे 'तुल्यारिमित्र' – अर्थात् जो तेरा शत्रु है वही मेरा भी शत्रु है, और जो तेरा मित्र है वह मेरा भी मित्र है; इस प्रकार की संधि करके बेचारे बालि का वध किया, यद्यपि उसने श्री रामचंद्र जी का कुछ अपराध नहीं किया था! परशुराम ने तो पिता की आज्ञा से प्रत्यक्ष अपनी माता का शिरश्छेद कर डाला! यदि पांडवों का आचरण देखा जाए तो कोई अहल्या का सतीत्व भ्रष्ट करने वाला है, और कोई ब्रह्मा मृगरूप से अपनी ही कन्या की अभिलाष करने के कारण रुद्र के बाण से विद्ध होकर आकाश में पड़ा हुआ है।[1]

इन्हीं बातों को मन में लाकर उत्तर–रामचरित्र नाटक में भवभूति ने लव के मुख से कहलाया है कि 'वृद्धास्ते न विचारणीय चरिताः' – इन वृद्धों के कृत्यों का बहुत विचार नहीं करना चाहिए। अंग्रेज़ी में शैतान का इतिहास लिखने वाले एक ग्रंथकार ने लिखा है कि शैतान के साथियों और देवदूतों के झगड़े का हाल देखने से मालूम होता है कि कई बार देवताओं ने ही दैत्यों को कपटजाल में फाँस लिया है। इसी प्रकार कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद[2] में इन्द्र प्रतर्दन से कहता है कि 'मैंने वृत्र को (यद्यपि वह ब्राह्मण था) मार डाला। अरून्मुख सन्न्यासियों के टुकड़े करके भेड़ियों को खाने के लिए दिए और अपनी कई प्रतिज्ञाओं को भंग करके प्रह्लाद के नातेदारों द्वारा गोत्रजों का तथा पौलोम और कालखंज नामक दैत्यों का वध किया, (इससे) मेरा एक बाल भी बांका नहीं हुआ।

तस्य मे तत्र न लोम च मा मीयते!
यदि कोई कहे कि 'तुम्हें इन महात्माओं के बुरे कर्मों की ओर ध्यान देने का कुछ भी कारण नहीं है; जैसा कि तैत्तिरीयोपनिषद[3] में बतलाया है, उनके जो कर्म अच्छे हों, उन्हीं का अनुकरण करो और सब छोड़ दो। उदाहरणार्थ; परशुराम के समान पिता की आज्ञा का पालन करो' तो वही पहला प्रश्न फिर भी उठता है कि बुरा कर्म और भला कर्म समझने के लिए साधन है क्या? इसलिए अपनी करनी का उक्त प्रकार से वर्णन कर इंद्र प्रतर्दन से फिर कहता है कि 'जो पूर्ण आत्मज्ञानी है उसे मातृवध, पितृवध, भ्रूणहत्या और स्तेय (चोरी) इत्यादि किसी भी कर्म का दोष नहीं लगता। इस बात को तू भली–भाँति समझ ले और फिर यह भी समझ ले कि आत्मा किसे कहते हैं। ऐसा करने से तेरे सारे संशय की निवृत्ति हो जाएगी।' इसके बाद इंद्र ने प्रतर्दन को आत्मविद्या का उपदेश दिया।

सारांश यह है कि 'महाजनो येन गतः स पन्थाः' यह युक्ति यद्यपि सामान्य लोगों के लिए सरल है, तो भी सब बातों में इससे निर्वाह नहीं हो सकता और अंत में महाजनों के आचरणों का सच्चा तत्त्व कितना भी गूढ़ हो तो भी आत्मज्ञान में घुसकर विचारवान पुरुषों को उसे ढूँढ़ निकालना ही पड़ता है। 'न देवचरितं चरेत्' – देवताओं के केवल बाहरी चरित्र के अनुसार आचरण नहीं करना चाहिए।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऐतरेय ब्राह्मण, 3.33
  2. कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद, 3.1 और ऐतरेय ब्राह्मण, 7.28
  3. तैत्तिरीयोपनिषद , 1.11.2

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