इस उपदेश का रहस्य भी यही है। इसके सिवाय कर्म–अकर्म का निर्णय करने के लिए कुछ लोगों ने एक और सरल युक्ति बतलाई है। उनका कहना है कि कोई भी सदगुण हो, उसकी अधिकता न होने देने के लिए हमें हमेशा यत्न करते ही रहना चाहिए क्योंकि इस अधिकता से ही अंत में सदगुण दुर्गुण बन बैठता है। जैसे दान देना सचमुच सदगुण है, परंतु अति दानाद्धलिर्बद्धः दान की अधिकता होने से ही राजा बलि फाँसा गया था। प्रसिद्ध यूनानी पंडित अरस्तू ने अपने नीति–शास्त्र के ग्रंथ में कर्म–अकर्म के निर्णय की यही युक्ति बतलाई है और स्पष्टतया दिखलाया है कि प्रत्येक सदगुण की अधिकता होने पर दुर्दशा कैसे हो जाती है। कालिदास ने भी रघुवंश में वर्णन किया है कि केवल शूरता व्याघ्र सरीखे श्वापद का क्रूर काम है और केवल नीति भी डरपोकपन है, इसलिए अतिथि राजा तलवार और राजनीति के योग्य मिश्रण से अपने राज्य का प्रबंध करता था।[1]
भर्तहरि ने भी कुछ गुण–दोषों का वर्णन कर कहा है कि ज़्यादा बोलना वाचालता का लक्षण है और कम बोलना घुम्मापन है, यदि ज़्यादा खर्च करे तो उड़ाऊ और कम करे तो कंजूस, आगे बढ़े तो दुःसाहसी और पीछे हटे तो ढीला, अतिशय आग्रह करे तो ज़िद्दी और न करे तो चंचल, ज़्यादा खुशामद करे तो नीच और ऐंठ दिखलाए तो घमंडी है; परन्तु इस प्रकार की स्थूल कसौटी से अंत तक निर्वाह नहीं हो सकता क्योंकि 'अति' किसे कहते हैं और 'नियमित' किसे कहते हैं – इसका भी तो कुछ निर्णय होना चाहिए न; तथा यह निर्णय कौन किस प्रकार करे? किसी एक को अथवा किसी एक मौके पर जो बात ‘अति’ होगी, वही दूसरे को अथवा दूसरे मौके पर कम हो जाएगी। हनुमान जी को, पैदा होते ही सूर्य को पकड़ने के लिए उड़ान मारना कोई कठिन काम नहीं मालूम पड़ा[2]; परन्तु यही बात औरों के लिए कठिन क्या, असंभव ही जान पड़ती है। इसलिए जब धर्म–अधर्म के विषय में संदेह उत्पन्न हो तो तब प्रत्येक मनुष्य को ठीक वैसा ही निर्णय करना पड़ता है जैसा श्येन ने राजा शिबि से कहा हैः–
विरोधिषु महीपाल निश्चित्य गुरुलाघवम्।
अर्थात परस्पर विरुद्ध धर्मों का तारतम्य अथवा लघुता और गुरुता देखकर ही प्रत्येक मौके पर अपनी बुद्धि के द्वारा सच्चे धर्म अथवा कर्म का निर्णय करना चाहिए।[3] परन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता है कि इतने ही से धर्म–अधर्म के सार–असार का विचार करना ही शंका के समय धर्म निर्णय की एक सच्ची कसौटी है। क्योंकि व्यवहार में अनेक बार देखा जाता है कि अनेक पंडित लोग अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार सार–असार का विचार भी भिन्न भिन्न प्रकार से किया करते हैं। यही अर्थ उपर्युक्त 'तर्कोऽप्रतिष्ठः' वचन में कहा गया है। इसलिए अब हमें यह जानना चाहिए कि धर्मः अधर्म संशय के इन प्रश्नों का अचूक निर्णय करने के लिए अन्य कोई साधन या उपाय हैं या नहीं। यदि हैं, तो कौन से हैं, और यदि अनेक उपाय हों तो उसमें श्रेष्ठ कौन हैं। बस; इस बात का निर्णय कर देना ही शास्त्र का काम है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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