गीता कर्म जिज्ञासा 14

पिबन्त्येवोदकं गावो मंडूकेषु रूवत्स्वपि।
न तेऽधिकारो धर्मेऽस्ति मा भूरात्मप्रशंसकः॥

'अरे! यद्यपि मेढ़क टर्र–टर्र किया करते हैं तो भी गौएँ पानी पीना बंद नहीं करतीं। चुप रह! मुझको धर्म–ज्ञान बताने का तेरा अधिकार नहीं है। व्यर्थ अपनी प्रशंसा मत कर।' उसी समय विश्वामित्र ने यह भी कहा कि जीवितं मरणात्श्रेयो जीवन्धर्ममवाप्नुयात्– अर्थात; यदि ज़िंदा रहेंगे तो धर्म का आचरण कर सकेंगे; इसीलिए धर्म की दृष्टि से मरने की अपेक्षा जीवित रहना अधिक श्रेयस्कर है। मनु जी ने अजीगर्त, वामदेव आदि अन्यायी ऋषियों के उदाहरण दिए हैं जिन्होंने ऐसे संकट के समय में इसी प्रकार आचरण किया है।[1] हाब्स नामक अंग्रेज़ ग्रंथकार लिखता है कि 'किसी कठिन अकाल के समय जब अनाज मोल न मिले या दान भी न मिले, तब यदि पेट भरने के लिए कोई चोरी या साहस कर्म करे, तो उसका यह अपराध माफ़ समझा जाता है।[2]' और मिल ने तो यहाँ तक लिखा है कि ऐसे समय चोरी करके अपना जीवन बचाना मनुष्य का कर्त्तव्य है।

‘मरने से ज़िंदा रहना श्रेष्ठ है’– क्या विश्वामित्र का यह तत्त्व सर्वथा अपवाद–रहित कहा जा सकता है? नहीं! इस जगत में सिर्फ़ ज़िन्दा रहना ही कुछ पुरुषार्थ नहीं है। कौए भी काक–बलि खा कर कई वर्ष तक जीते रहते हैं। यही सोचकर वीरपत्नी विदुला अपने पुत्र से कहती है कि बिछौने पर पड़े–पड़े सड़ जाने या घर में सौ वर्ष की आयु को व्यर्थ व्यतीत करने की अपेक्षा, यदि तू एक क्षण भी अपने पराक्रम की ज्योति प्रगट करके मर जाएगा तो अच्छा होगा– मुहूर्तं ज्वलितं श्रेयो न च धूमायितं चिरं।[3] यदि यह बात सच है कि आज नहीं तो कल, अंत में सौ वर्ष के बाद मरना ज़रूर है[4]; तो फिर उसके लिए रोने या डरने से क्या लाभ है? आध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से तो आत्मा नित्य और अमर है; इसलिए मृत्यु का विचार करते समय, सिर्फ़ इस शरीर का ही विचार करना बाकी रह जाता है। अच्छा; यह तो सब जानते हैं कि यह शरीर नाशवान है। परन्तु आत्मा के कल्याण के लिए इस जगत में जो कुछ करना है, उसका एकमात्र साधन यही नाशवान मनुष्य–देह है।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मनुस्मृति. 10.105–108
  2. Hobbes’ Leviathan, Part II. Chap. XXVII. P.139 (Morley’s Universal Library Edition). Mill’s Utilitarianism, Chap. V.P.95. (15th Ed.) – “Thus, to save a life, it may not only be allowable but a duty to steal etc.”
  3. महाभारत. उद्योग पर्व, 132.15
  4. भागवत पुराण 10.1.38; गीता, 2.27

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