गीता कर्म जिज्ञासा 10

यदि उक्त अंग्रेज़ ग्रंथकारों के मतों की तुलना हमारे धर्मशास्त्रकारों के बनाए हुए नियमों के साथ की जाए, तो यह बात सहज ही ध्यान में आ जाएगी कि सत्य के विषय में अभिमानी कौन है। इसमें संदेह नहीं है कि हमारे शास्त्रों में कहा है किः–

न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति न स्त्रीषु राजन्न विवाहकाले।
प्राणात्यये सर्वधनापहारे पंचानृतान्याहुरपातकानि॥

अर्थात;- 'हँसी में स्त्रियों के साथ, विवाह के समय जब जान पर आ बने तब और सम्पत्ति की रक्षा के लिए झूठ बोलना पाप नहीं है'।[1] परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि स्त्रियों के साथ हमेशा झूठ ही बोलना चाहिए। जिस भाव से सिजविक साहब ने 'छोटे लड़के, पागल और बीमार आदमी' के विषय में अपवाद कहा है, वही भाव महाभारत के उक्त कथन का भी है। अंग्रेज़ ग्रंथकार पारलौकिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि की ओर कुछ भी ध्यान नहीं देते। उन लोगों ने तो खुल्लम–खुल्ला यहाँ तक प्रतिपादन किया है कि व्यापारियों का अपने लाभ के लिए झूठ बोलना अनुचित नहीं है। किन्तु यह बात हमारे शास्त्रकारों को सम्मत नहीं है। इन लोगों ने कुछ ऐसे ही मौकों पर झूठ बोलने की अनुमति दी है, जबकि केवल सत्य शब्दोच्चारण (अर्थात केवल वाचिक सत्य) और सर्वभूतहित (अर्थात वास्तविक सत्य) में विरोध हो जाता है और व्यवहार की दृष्टि से झूठ बोलना अपरिहार्य हो जाता है। इनकी राय है कि सत्य आदि नीतिधर्म नित्य, अर्थात सब समय एक समान अबाधित हैं; अतएव यह अपरिहार्य झूठ बोलना भी थोड़ा–सा पाप ही है और इसी लिए प्रायश्चित भी कहा गया है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, आदिपर्व, 82.19; और शान्तिपर्व, 109 तथा मनुस्मृति, 8.110

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