गीता कर्म जिज्ञासा 26

कर्म– अकर्म या धर्म–अधर्म के विषय में सब संदेहों का यदि निर्णय करने लगें तो दूसरा महाभारत ही लिखना पड़ेगा। उक्त विवेचन से पाठकों के ध्यान में यह बात आ जाएगी कि गीता के आरंभ में क्षात्रधर्म और बंधुप्रेम के बीच झगड़ा उत्पन्न हो जाने से अर्जुन पर जो कठिनाइयाँ आईं, वे कुछ लोक विलक्षण नहीं हैं। इस संसार में ऐसी कठिनाइयाँ कार्यकर्त्ताओं और बड़े–बड़े आदमियों पर अनेकों बार आया ही करती हैं; और जब ऐसी कठिनाइयाँ आती हैं तब कभी अहिंसा और आत्मरक्षा के बीच, कभी सत्य और सर्वभूतहित में, कभी शरीर रक्षा और कीर्ति में और कभी भिन्न–भिन्न नातों से उपस्थित होने वाले कर्त्तव्यों में झगड़ा होने लगता है। शास्त्रोक्त सामान्य तथा सर्वमान्य नीति–नियमों से काम नहीं चलता और उनके लिए अनेक अपवाद उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसे विकट समय पर साधारण मनुष्यों से लेकर बड़े–बड़े पंडितों को भी यह जानने की स्वाभाविक इच्छा होती है कि कार्य–अकार्य की व्यवस्था; अर्थात कर्त्तव्य–अकर्त्तव्य धर्म का निर्णय करने के लिए कोई चिरस्थायी नियम अथवा मुक्ति है या नहीं।

यह बात सच है कि शास्त्रों में दुर्भिक्ष जैसे संकट के समय 'आपद्धर्म' कह कर कुछ सुविधाएँ दी गई हैं। उदाहरणार्थ, स्मृतिकारों ने कहा है कि यदि आपत्काल में ब्राह्मण किसी का भी अन्न ग्रहण कर ले तो वह दोषी नहीं होता, और उषस्तिचाकायण के इसी तरह बर्ताव करने की कथा भी छांदोग्योपनिषद[1] में है। परन्तु इसमें और उक्त कठिनाइयों में बहुत भेद है। दुर्भिक्ष जैसे आपत्काल में शास्त्रधर्म और भूख, प्यास आदि इन्द्रियवृत्तियों के बीच में ही झगड़ा हुआ करता है। उस समय हमको इन्द्रियाँ एक ओर खींचा करती हैं और शास्त्रधर्म दूसरी ओर खींचा करता है। परन्तु जिन कठिनाइयों का वर्णन ऊपर किया गया है, उनमें से बहुतेरी ऐसी हैं कि उस समय इन्द्रिय वृत्तियों का और शास्त्र का कुछ भी विरोध नहीं हो तो किन्तु ऐसे–ऐसे दो धर्मों में परस्पर विरोध उत्पन्न हो जाता है जिन्हें शास्त्रों ही ने विहित कहा है, और फिर उस समय सूक्ष्म विचार करना पड़ता है कि किस बात को स्वीकार किया जाए। यद्यपि कोई मनुष्य अपनी बुद्धि के अनुसार इनमें से कुछ बातों का निर्णय प्राचीन सत्पुरुषों के ऐसे ही समय पर किए हुए बर्ताव से कर सकता है; तथापि ऐसे अनेक मौके हैं कि जब बड़े–बड़े बुद्धिमानों का भी मन चक्कर में पड़ जाता है। कारण यह है कि जितना अधिक विचार किया जाता है, उतनी ही अधिक उपपत्तियाँ और तर्क उत्पन्न होते जाते हैं और अंतिम निर्णय असंभव सा हो जाता है। जब उचित निर्णय होने नहीं पाता, तब अधर्म या अपराध हो जाने की भी संभावना होती है।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. याज्ञवल्क्यस्मृति 3.41; छान्दोग्य उपनिषद, 1.10

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