महाभारतकार व्यास जी इन सूक्ष्म प्रसंगों को अच्छी तरह जानते थे। इसलिए उन्होंने यह समझा देने के उद्देश्य ही से अपने धर्म में अनेक भिन्न भिन्न कथाओं का संग्रह किया है कि प्राचीन समय के सत्पुरुषों ने ऐसे कठिन मौकों पर कैसा बर्ताव किया था। परन्तु शास्त्र–पद्यति से सब विषयों का विवेचन करके उसका सामान्य रहस्य महाभारत सरीखे धर्मग्रंथों में कहीं न कहीं बतला देना आवश्यक था। इस रहस्य या मर्म का प्रतिपादन अर्जुन की कर्त्तव्य–मूढ़ता को दूर करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने पहले जो उपदेश दिया था, उसी के आधार पर व्यास जी ने भगवद्गीता में किया है। इससे 'गीता' महाभारत का रहस्योपनिषद और शिरोभूषण हो गई है और महाभारत गीता के प्रतिपादन मूलभूत कर्मतत्त्वों का उदाहरण सहित विस्तृत व्याख्यान हो गया है।
इस बात की ओर उन लोगों को अवश्य ध्यान देना चाहिए, जो यह कहा करते हैं कि महाभारत ग्रंथ में 'गीता' पीछे से घुसेड़ दी गई है। हम तो यही समझते हैं कि यदि गीता की कोई अपूर्वता या विशेषता है तो वह यही है कि जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है। कारण यह है कि यद्यपि केवल मोक्षशास्त्र, अर्थात वेदान्त का प्रतिपादन करने वाले उपनिषद आदि, तथा अहिंसा आदि सदाचार के सिर्फ़ नियम बतलाने वाले स्मृति आदि, अनेक ग्रंथ हैं; तथापि वेदान्त के गहन तत्त्वज्ञान के आधार पर 'कार्याकार्यव्यवस्थिति' करने वाला गीता के समान कोई दूसरा प्राचीन ग्रंथ संस्कृत साहित्य में देख नहीं पड़ता। गीता भक्तों को यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है कि 'कार्याकार्यव्यवस्थिति' शब्द गीता[1] ही में प्रयुक्त हुआ है, यह शब्द हमारी मनगढ़ंत नहीं है। भगवद्गीता के ही समान योग वसिष्ठ में ही वसिष्ठ मुनि ने श्री रामचन्द्र जी को ज्ञान–मूलक प्रवृत्ति मार्ग का ही उपदेश किया है। परन्तु यह ग्रंथ गीता के बाद बना है और उसमें गीता का ही अनुकरण किया गया है। अतएव ऐसे ग्रंथों से गीता की उस अपूर्वता या विशेषता में, जो ऊपर कही गई है, कोई बाधा नहीं होती।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता, 19.24
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