विरह-पदावली -सूरदास
(169) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) ‘सखी! तू मलिन (उदास) क्यों रहती है। मैं (तेरे) शरीर पर कोई श्रृंगार नहीं देखती, किंतु बुद्धि, बल और आनन्द से रहित (देखती) हूँ। मुख में पान और आँखों में अंजन नहीं है, ललाट पर तिलक (भी) नहीं लगाया है, कपड़े मैंने हैं, केश अत्यन्त रूखे हैं और शरीर अत्यन्त कृश दिखायी पड़ता है।’ (इस पर दूसरी गोपी कहती है-) प्रेम की प्यास को तीन प्रकार के प्राणी ही जानते हैं- वियोगी, चातक और मछलियाँ। जिन्होंने (अपना) मन दूसरे के अधीन कर दिया है, उसके हृदय पर जो बीतती है, उसे वह ही समझ सकता है (दूसरा नहीं)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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