विरह-पदावली -सूरदास
राग कान्हरौ (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) चन्द्रमा की शीतलता दूर हो गयी है, मानो वह मुझे जलाकर भस्म कर देना चाहता है, वही (क्रोधरूपी) कालिमा का कलंक अपने शरीर में सजा रहा है। इसी से आकाश भी काला दिखायी पड़ता है, मानो धुआँ उससे लिपटा हुआ हो। इतने पर भी (वह) किरणों के द्वारा हमारे हृदय में दावाग्नि लगाता है, जिसकी चिनगारियाँ ही तारागणों के रूप में उछलकर आकाश में छा गयी हैं। सखी! निद्रा के समय (तो) राहु और केतु दोनों जुड़ (एक हो) कर एक साथ आते हैं; किंतु (उनके द्वारा) निगल लिये जाने पर भी यह तापमय (उष्ण चन्द्रमा उनके पेट में) पच नहीं पाता (निद्रा के समय अदृश्य होने के बाद जागने पर फिर दीखने लगता है)! यह (तो) वियोगिनियों के लिये दुःख देने वाला कहा ही जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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