विरह-पदावली -सूरदास
(263) (कोई गोपी कह रही है- ‘सखी!) समुद्र-मन्थन करते समय चन्द्रमा को क्यों निकाला? पर्वत (मन्दराचल), नाग (वासुकि), दैत्यों और देवताओं ने मिलकर और बार-बार गर्जना करते हुए इस चन्द्रमा को बढ़ा दिया। क्या तेरह रत्न निकलने पर भी कुछ कमी रह गयी थी, जो (इसे निकालकर) चौदह पूरे किये गये। इसने अपनी (अमृतमयी) कलाएँ तो देवताओं को दे दीं और वियोगिनियों के लिये शूरमाँ बन गया। यदि (किसी की) किसी से शत्रुता हो जाती है तो वह पास आकर मरता है; किंतु यह न जाने क्यों आकाश पर रहकर वहीं से संकल्प करके पृथ्वी पर के शत्रु को जलाता है। इसमें इसका दोष भी क्या है, सुनो! यह तो बड़वानल का अंश है और हलाहल विष-जैसे इसके भाई हैं; फिर परम क्रोधी शंकर के मस्तक पर इसे बैठा दिया गया। इसलिये इसने ऐसी (दूसरों को पीड़ा देने वाली) बुद्धि पायी है।’ सूरदास जी कहते हैं (कितने आश्चर्य की बात है कि) जिन मथुरा के स्वामी नटनागर मोहन से यह सगुणात्मक सम्पूर्ण जगत प्रकट हुआ है, (आज) उन्हीं की प्रियतमाएँ शरीर पर रात-दिन वियोग के कष्ट सह रही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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