विरह-पदावली -सूरदास
(104) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) अब वे बातें (ही) उलटी हो गयी हैं; सखी! जिन बातों से (पहिले) सुख मिलता था, वे भी अब दुस्सह (कष्टदायी) हो गयी हैं। श्यामसुन्दर के साथ रात के प्रहर में रहते समय वर्षा-ऋतु की गर्जना भी आनन्दसमूह की (अपरिमित) सीमा थी तथा प्रियतम का प्रेमवश डाँटना भी बड़ा मधुर लगता था। (यही नहीं, उस समय) मयूरों का पुकारना (बोलना), कोकिल का कुहकना और भौरों की गुंजार सुहावनी लगती थी; किंतु अब वे ही कुँवर कन्हैया के बिना सब मेढक के टर्राने-जैसी लगती हैं। चन्दन, चन्द्रमा और पवन भी अग्नि के समान शरीर में ज्वाला उत्पन्न कर देते हैं तथा यमुना और कमल के पुष्प-सब देखने में ही दुःखदायक लगते हैं। शरद्, वसन्त, शिशिर और ग्रीष्म (ऋतुओं में) हेमन्त ऋतु की ही अधिकता रहने लगी है तथा वर्षा-ऋतु में (मैं) स्वामी के बिना जलती रहती हूँ तथा तड़पते हुए रात्रि व्यतीत करती हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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