विरह-पदावली -सूरदास
राग सारंग (सूरदास जी के शब्दों में श्रीराधा कहती हैं-) सखी! एक दिन कुञ्ज में मोहन ने अपने हाथ से अनेक प्रकार के पुष्प लेकर (तोड़कर) मुझे दिये, (उस दिन की) वह स्मृति (मुझे) भूलती नहीं। इतने में (ही) बादल गर्जना करके वर्षा करने लगे, (जिससे) मेरा शरीर भीग गया और मुझे ठंड लगने लगी। उन करुणामय ने मुझे काँपते देखकर अपना पीताम्बर ओढ़ा दिया तथा (मुझे) लेकर गले से लगा लिया। कहाँ तो मोहन की वह प्रीति की रीति और कहाँ अब (उनकी) यह इतनी निष्ठुरता! अरी सखी! हमारे स्वामी (उन) बलराम जी के छोटे भाई ने अब मथुरा में निवास करके हमारा सब प्रेम विस्मृत कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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