विरह-पदावली -सूरदास
राग सारंग (सूरदास जी के शब्दों में व्रजवासी लोग कह रहे हैं-) हमने तो इतने में ही परम सुख पा लिया कि कमलदललोचन श्यामसुन्दर ने फिर से हमें दर्शन दिया। क्या हुआ जो लोग कहते हैं कि कन्हैया (अब) द्वारिका में रहने लगे हैं; किंतु गोकुल की वियोग (व्याकुल) दशा सुनकर वे अत्यन्त आतुर (चंचल) होकर दौड़ पड़े। (कंस के) धोबी, धेनुकासुर, कुवलयापीड हाथी तथा कंस को मारकर उन्होंने अपने भक्तों का प्रिय कार्य किया और (यदुकुल के) महाराज हो गये तथा अपने माता-पिता (श्रीदेवकी-वसुदेव) से मिले; फिर भी (उन्होंने) व्रज को विस्मृत नहीं किया। (जब) गोपियाँ, गोप और नन्दजी (सब) मिलकर (मोहन से मिलने) चले, (तब) उनके मन में प्रेम का समुद्र उमड़ रहा था और अपने बाल-गोपाल के श्रीमुख को देखकर सबके नेत्रों से जल बहने लगा। यद्यपि (श्यामसुन्दर के वैभव को देखकर) हम अपने मन में संकुचित हुए, किंतु श्यामसुन्दर ने अधिक प्रेम प्रकट किया। उन श्रीनन्दनन्दन ने वैसे ही (पहिले के समान फिर से) प्रत्येक घर का मक्खन खाया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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