विरह-पदावली -सूरदास
गोपिकाओं की उद्विग्नता (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) श्याम ने मुझसे (अपने) चले जाने की बात कही, उसे सुनकर (मेरा) मन-गम्भीर हो गया और मुझसे उत्तर देते नहीं बना, मैं चिन्ता पड़ी रह गयी। सखी! सच्चे भाव की बातें सुन। वियोग रूपी लता अब उमड़कर बढ़ चली है। श्यामसुन्दर ने हमसे जो (हाथ में) आरे के समान चिह्न (और उसके फल-वियोग) की बात कही थी, वह अब सच होने जा रही है। सखी! आज मैंने स्वप्न में देखा है कि समुद्र का कगार ढह (गिर) पड़ा है। मेरे स्वामी! आपके जाने की बात सुनकर मैं जल के समान बही जा रही हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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