विरह-पदावली -सूरदास
(204) (कोई गोपी कह रही है- सखी! हमारे) संदेशों से मथुरा के कुएँ भर गये। मोहन स्वयं तो संदेश भेजते नहीं और हमने जो भेजे, वे फिर लौटे नहीं। जितने यात्री हमने मथुरा भेजे, उन्होंने फिर हमारी खोज नहीं ली। या तो उन्हें श्यामसुन्दर ने सिखा-पढ़ाकर समझा दिया या (वे) बीच (मार्ग) में ही मर गये अथवा (मथुरा में) कागज वर्षा से गल गये, स्याही समाप्त हो गयी और दावाग्नि लगने से सरकंडे (कलम बनाने के साधन) भस्म हो गये तथा संदेश लिखने वाला सेवक सूरदास आँखों का अंधा है, उसके नेत्रों के पलकरूपी किवाड़ अड़ गये (वह नेत्र नहीं खोल पाता है) (अर्थात् वहाँ संदेश लिखने के सब साधन समाप्त हो गये हैं!)[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 इस पद की पाँचवीं पक्तिं का पाठ, जिसे आदि से अन्त तक सभी सूरसागर की हस्तलिखित प्रातियों में अपनाया गया है और जो इससे कही अधिक सुन्दर भी है, इस प्रकार है- मसि खूटी, कागर हू भीग्यौं, सर दौ लागि जरे।
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