विरह-पदावली -सूरदास
(298) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) यह दुःख किससे कहूँ? चतुर सखी! मुझ पर जो बीत रही है, वही कहती हूँ- (अब) नित्य जीवन वेदना सहती हूँ। श्यामसुन्दर के साथ जितने आनन्द किये, उन सबको इस शरीर ने (स्मृतिरूप में) पकड़ रखा था। वे ही सब इस शरीर के लिये ऐसे शीतप्रद (दुःखद) हो गये हैं, जैसे वृक्ष की शाखा एवं पत्तों को (जलाने वाला पाला) होता है। जो (मोहन के) समीप रहने के कारण मिलने की आशा थी, वह (इस भाँति) दूर चली गयी, जैसे रोगी व्यक्ति नित्य नवीन कुपथ्य करने से यथायोग्य (स्वास्थ्य-लाभ समझकर) अधिक रोगी होता जाता है। (अब) इस शरीर को छोड़कर उनसे ऐसे मिलना होगा, जैसे समुद्र में गँगा। सुनो, अब मेरा ऐसा ध्यान (विचार) है कि श्याम और बलराम दोनों भाई एक ही रंग के (एक समान निष्ठुर) हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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