विरह-पदावली -सूरदास
राग कान्हरौ (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) हमने श्यामसुन्दर को ऐसा (निष्ठुर) नहीं समझा था- उन्होंने सेवा करते हुए (हमारे साथ) ऐसा व्यवहार किया, जिससे हम जाति, कुल तथा नाम (यश) से च्युत हो गयीं। जो कोई तन-मन से प्रेम करके फिर उसे तोड़ दे, उसमें क्या साधुता है ? वे, भला, दूसरे की पीड़ा क्या जानें, जो अपने काम (स्वार्थ) पर ही लुभाये रहते हैं। अब तो (वे) नगर की स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करने में अत्यन्त क्रीड़ा चतुर हो गये हैं और कुब्जा (-जैसी) स्त्री में अनुरक्त हो गये हैं। जिसका जैसा स्वभाव होता है, अन्त में वही सामने आता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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