विरह-पदावली -सूरदास
राग केदारौ (एक गोपी कह रही है- सखी!) जब से कुञ्जविहारी बिछुड़े हैं, तब से वियोग की वेदनारूपी भारी ज्वर हो गया है (जिससे) न तो नींद आती है और न रात ही घट (कट)ती है। शरद् (ऋतु) की रात्रि कमल की पंखुड़िये-जैसी शीतल होती है। (ऐसी रात्रि में) चाँदनी जगमग कर रही है; किंतु (मुझे तो) यह सूर्य की किरणों से भी उष्ण लगती है और इस शीतल (कहलाने वाले) चन्द्रमा ने भी मुझे जला डाला है। सखी! वृक्षों की डालियों पर बैठे कोकिल और पपीहे का शब्द कानों को सुहाता नहीं (अच्छा नहीं लगता)। सखी! मेरे हृदय पर से (इस) हार को दूर कर दे और कंगन को (भी) उतार कर रख दे। श्यामसुन्दर के बिना (ये सब) दुःखदायी लगते हैं, अतः इस फूलों की शय्या को भी अलग कर दे। सूरदास जी कहते हैं- (इस प्रकार) श्रीवृषभानुकुमारी श्रीराधा उदास-मुख होकर बहुत-से उपाय करके थक गयी (फिर भी किसी प्रकार वियोग का दुःख कम नहीं हुआ)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विशेषभाष्य- पाठ-उर तें दूरि करै किन्ह हारै
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