विरह-पदावली -सूरदास
(230) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) अब व्रज में नन्दनन्दन नहीं हैं, यही समझकर अज्ञानी इन्द्र ने गोकुल पर चढ़ाई की हठ की है। (अब तो मेरे ये) नेत्र ही बादल बन गये हैं, पलकों का गिरना विद्युत के सामान है और (मेरे) आँसू भी वर्षा के धारा के सामान बरस रहे हैं, (जिससे मोहन का) दर्शन और धैर्यरूपी सूर्य-चन्द्रमा छिप गये हैं तथा श्वास (वर्षा-ऋतु की) वायु के समान चल रही है। वक्षःस्थलरूपी पर्वतों में कामदेव भारी विषमता भर रहा है। वियोग की व्याकुलताभरी वाणी (रुदन ही) गर्जना है, (ऐसी अवस्था में भी श्यामसुन्दर के लौटने की) अवधि के सहारे ही जी रही हूँ। पथिक! मथुरा जाकर श्यामसुन्दर से यह बात समझाकर कहना कि शत्रु की सेना ने (उनका) उत्तम धाम घेर लिया है। अब तो आप हमारी पुकार सुनकर सहायक हों। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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