विरह-पदावली -सूरदास
राग मलार (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) ‘सखी! कोई इस चन्द्रमा को मना तो करो, यह हम पर तो अत्यन्त क्रोध करता है और कुमुदिनी के कुल को आनन्द देता है। क्या कहूँ, वर्षा, सूर्य, मुर्गे, कमल और काले बादल-सभी को बुलाकर (हार गयी-कोई नहीं आया और यह) चंचल चलता ही नहीं, अपने रथ को स्थिर बनाये वियोगिनियों के शरीर को जला रहा है।’ वह (गोपी) पर्वत (मन्दराचल), क्षीरसागर, वासुकि नाग, भगवान् विष्णु और कठोर कच्छप की (जिनके सहयोग से चन्द्रमा उत्पन्न हुआ) निन्दा करती है। जरा देवी को आशीर्वाद देती (और प्रार्थना करती) है कि वे राहु-केतु को क्यों नहीं जोड़ देतीं (जिससे वह इसे ग्रस ले)। जैसे पानी से रहित मछलियाँ तड़पती हैं, ऐसी दशा व्रजनारियों की हो रही है। इसलिये वे कहती हैं कि ‘अब तो (मन) मोहने वाले मदनगोपाल को लाकर मिला दो।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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