विरह-पदावली -सूरदास
राग मलार (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) राधा प्रतिदिन श्यामसुन्दर का मार्ग ही देखती है। जैसे चन्द्रमा को चकोर देखता है, उसी प्रकार (वह उनके लौटने का मार्ग) देखती और उनके गुणों का बार-बार स्मरण करके रोती रहती है। चिट्ठियाँ भेजती है, पर स्याही समाप्त नहीं होती। (पत्र ऐसे आँसू से भीग जाते हैं) मानो बार-बार उन्हें लिखकर धो देती है। (उसे) दिन में न तो भूख लगती है और रात में निद्रा खो गयी है, एक पल भी सोती नहीं। श्यामसुन्दर के साथ रहने पर जो-जो वस्त्र (उसने) पहिने थे, उन्हें अब भी धोती नहीं। स्वामी! आपके दर्शन के बिना वह जीवन के समस्त आनन्द व्यर्थ खो रही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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