विरह-पदावली -सूरदास
(209) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) सखी! व्रज पर पावस (वर्षा-ऋतु) की सेना दौड़ती हुई चढ़ी आ रही है; क्योंकि अभिमानी इन्द्र गोकुल को (श्यामसुन्दर से) सूना समझकर उसे (जीतने का सुन्दर) अवसर पा गया है। दसों दिशाएँ धुएँ से भरी (इस प्रकार) दीखती हैं मानो (इन्द्र की) चतुरंगिणी सेना चल रही हो और उसके घोड़ों के खुरों से उड़ी धूलि आकाश में छा गयी हो। (उसके भय से हमारा) शरीर काँप रहा है। पर्वतों और वृक्षों पर चढ़-चढ़कर मयूर बोलते हैं और वृक्षों की डालों पर बगुले (इस भाँति) उड़ते हैं, मानो झंडा ले चलने वाले झंडा उड़ा पुकारकर सबको भाग जाने को कहते हों। आकाश में (मेघ रूपी) हाथियों के समूह गर्जना कर रहे हैं और मेढ़कों के समूह का कोलाहल ही सेना की दलकार-पुकारना है। (ऐसी दशा में अहो) श्यामसुन्दर! अपने इस व्रज की पुकार सुनकर तुम रक्षा करने क्यों नहीं आते ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
पद संख्या | पद का नाम |