विरह-पदावली -सूरदास
राग सारंग (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) श्यामसुन्दर का वियोग होने पर (यह मेरा) हृदय फट नहीं गया, यह तो वज्र से भी अधिक कठोर हो गया है। (किंतु) रहकर ही इस पापी ने क्या किया? सखी! सुन, (तू कह सकती है कि) उस समय मैंने हलाहल विष घोलकर क्यों नही पी लिया। किंतु (बात यह हुई कि मैं) मन से (उस समय) अपनी सुधि (ही) भूल गयी, (जिससे) शरीर की सम्हाल नहीं रही। इसी से अक्रूर ने पूरा दाव दिया (पूरी चोट की)। जब से वह (श्यामसुन्दर रूपी) सम्पत्ति गयी है, तब से कुछ अच्छा नहीं लगता। घर के काम करने का नियम बना लिया है। रात-दिन स्वामी के बिना मृत्यु के लिये रट लगाये हूँ, पर मृत्यु नहीं आती और न जीवित ही रहा जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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