विरह-पदावली -सूरदास
(257) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है-) सखी! (श्यामसुन्दर के व्रज से पधारने के बाद) वंशी फिर नहीं बजी। अब मेरी गोशाला में गायें दुहवाने कौन जायगा? वे (गायें) तो (अपने) स्थानों पर घूम रही हैं (खड़ी नहीं होतीं)। जहाँ (मोहन) सुखपूर्वक सोते थे, वह घर और शय्या सूनी पड़ी हैं तथा सब गोप बालक और गोपियाँ (भी) सूनी (उदास) हो रही हैं, उन्हें कहीं शान्ति नहीं है। (ओह!) व्रज की मणि (एवं) गोकुल के नायक श्यामसुन्दर मथुरा चले गये, अब उन स्वामी के दर्शन के बिना ये मेरे नेत्र तृप्ति नहीं मानते (बेचैन रहते) हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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