विरह-पदावली -सूरदास
राग धनाश्री (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) मेरे नेत्र लालच के वश अपने लक्ष्य से हटते नहीं। (वे तो) श्यामसुन्दर के मुख की शोभा से एक साथ विद्ध (उस पर अनुरक्त) हुए तथा वियोग में झुल से, किंतु फिर भी वे जलते ही रहते हैं। जैसे भौंरा केतकी के पुष्प पर अनुरक्त हो जाय (उससे प्रेम करने लगे तो), फिर चाहे उसे करोड़ों काँटे (क्यों न) चुभें, (उसे वह त्यागता नहीं)। उसी प्रकार ये लोभी (नेत्र) भी अपना लोभ नहीं छोड़ते और बार-बार उधर ही चक्कर लगाते हैं। जैसे मृग स्वभाव से ही कठोर बाण सहते हैं, परंतु सम्मुख से हटकर छिपते नहीं। वे (मृग) जानते हैं कि (व्याध के) बाण मारने पर शरीर छोड़ना पड़ेगा। इतने पर भी (उसके गायन से) प्रेम करते हैं। समझ में नहीं आता कि ये (नेत्र) वहाँ कौन-सा सुख पाते हैं जो (पतंग के समान) जीते ही (दीपक पर) जाकर मरते हैं। (वास्तव में) उत्तम योधा अपना हठ नहीं छोड़ते, मस्तक कट जाने पर भी युद्ध करते (ही) रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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