विरह-पदावली -सूरदास
राग धनाश्री (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही हैं-) सखी! रथ कितनी दूर गया होगा? (हाय!) नन्दनन्दन श्यामसुन्दर से चलते समय मैं मिल भी नहीं सकी। (वैसे तो) मैं नन्दराय जी के द्वार पर आये बिना एक दिन भी नहीं रहती थी; किंतु आज ब्रह्मा ने मेरी बुद्धि हरण कर ली, मैं घर के कामों में रुकी रह गयी। जब श्यामसुन्दर इस प्रकार की (यहाँ से जाने की) तैयारी कर रहे थे, तब (मुझसे) किसी ने भी चर्चा नहीं की नहीं की (और इस प्रकार) व्रज में रहती हुई भी मैं मोहन से विमुख हो गयी- यह वेदना हृदय से जाती नहीं है। जैसे सोते समय स्वप्न में मिली सम्पत्ति (स्वप्न में ही) चित्त के लिये सुखदायक होती है (जागने पर नहीं)। अतः अब सूरदास के स्वामी के बिना व्रज में रहना एक पल भी अच्छा नहीं लगता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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