विरह-पदावली -सूरदास
(225) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है-) सखी! ये श्रावण (मास) के दिन किस प्रकार बीतेंगे; (क्योंकि) पृथ्वी (घास से) हरी हो गयी, तालाबों में जल भर गया, (इसलिये) मोहन के आने के मार्ग भी बंद हो गये (घास और जल से ढक गये)। मेढ़क, मयूर, पपीहे और कोकिल कोलाहल कर रहे हैं। अरी इनकी प्रसन्नता की यही तो (श्रावण की) रातें हैं। चारों ओर बादल गरजते हुए उमड़ रहे हैं (तथा) बिजली चमक रही है, कामदेव के धनुष लेकर दौड़ने के ये ही दिन हैं। (सखियों के) कुसुम्भी (गहरी लाल) रंग की साड़ियाँ तथा चोलियाँ शरीर में पहिनकर झुंड बनाकर गाने के भी ये ही दिन हैं। (ऐसी अवस्था में) हे स्वामी! यह असहनीय शोक कैसे कम हो सकता है, जो रावण के मस्तक के समान (जो काटने पर फिर निकल आते थे, यह) तिगुना होता जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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