विरह-पदावली -सूरदास
राग मारू (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) शरद्-ऋतु के समय भी श्यामसुन्दर नहीं आये। सखी! कौन जाने किसलिये नहीं आये, (हमारी) किस वैरिन ने (उन्हें) रोक रखा है। आकाश निर्मल हो गया है, पृथ्वी पर कास फूल रहा है, स्वच्छता के सभी लक्षण प्रकट हो गये हैं; सरोवरों, नदियों और समुद्र का जल निर्मल हो गया है और उनमें बहुत अधिक कमल (फूले हुए) शोभा देने लगे हैं। चन्द्रमा ने साँपों को (अपनी किरणें पिलाकर) उनको जलाने वाले विष से[1] तथा कमलों ने अपना मकरन्द देकर भौंरों को जिलाया है। सुन्दरियाँ (भी) अपने प्रियतम के साथ अनुरागपूर्वक मिलकर, आमोद-प्रमोद द्वारा अपने को (स्नेह से) सिंचित करके (हृदय) शीतल करती हैं; किंतु (वही चन्द्रमा) हमारी सूनी शय्या पर देर तक पाला जमाकर हमारे लिये वियोग का समुद्र उत्पन्न करता है। अब मिलन की आशा नष्ट हो गयी, श्रीव्रजनाथ दूसरों के हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शरद ऋतु में चन्द्रमा की किरणों से शीतल पत्तों पर पड़ी ओस सर्प चाटते हैं- ऐसी जनश्रुति है।
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