विरह-पदावली -सूरदास
(124) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) व्रज में अब वह (पहिले-जैसी) दशा नहीं है। सब गोप व्रज में श्यामसुन्दर के बिना जीवित तो हैं, पर अब (यहाँ के) दूध-दही में स्वाद नहीं रहा। जैसे आँधी के वेग से (टूटकर) वृक्ष की डालियाँ दसों दिशाओं में उड़ती फिरती हैं, वैसे ही मैं दिनभर वियोग से भरी हुई अत्यन्त व्याकुल रहती हूँ और (रात्रि में) कभी नींद नहीं ले पाती। श्यामसुन्दर के बिना दिनों दिन शरीर (दुर्बल एवं) दुःखी होता जाता है, इस शरीर न बहुत (कष्ट) सहा। हम उसी समय नहीं मर गयीं, अब यह दुःख सहने को जीवित रह गयीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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