विरह-पदावली -सूरदास
(299) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) ये दिन भी बीतने लगे, पर गोविन्द (अब भी) नहीं आये। सखी! उनको क्या दोष दिया जाय, (हम) व्रज के लोग ही भाग्यहीन हैं। (हम) प्रेम के मद से मतवाले होकर (ऐसे) सो गये (असावधान रहे) कि अपना सर्वस्व-हरण होते समय भी जागे नहीं। अब बतलाओ, हमारा क्या वश चल सकता है। वे तो कहीं अन्यत्र प्रेम कर चुके हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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