विरह-पदावली -सूरदास
राग अड़ानौ (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) श्यामसुन्दर के सुख के निवास सुन्दर मुख को देखकर मेरे नेत्र एवं मन विमुग्ध हो गये हैं। एक बार वे इस गली से निकले थे कि मैंने खिड़की में से सिर बाहर निकाल कर (उनकी ओर) झाँका (देखा)। उन्होंने भी कुछ थोड़ी चतुराई की और गेंद उछालकर (मेरी ओर) देखा। मैं इस लज्जा को जला दूँ, वह (उस समय) मेरे लिये शत्रु हो गयी, जो मुझ मूर्खा ने मुख ढक लिया। किंतु तनिक देखने में ही वे कुछ ऐसा कर गये कि मेरे प्राण मद (प्रेम) से छके (परितृप्त) रहते हैं। वे मेरे स्वामी मेरा सर्वस्व ले गये और हँसते-हँसते (उन्होंने) रथ हाँक (चला) दिया।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीसूर का यह पद वल्लभसम्प्रदाय में सुन्दरता की चोटी को माना जाता है और रथ-यात्रा (आषाढ़ शुक्ला-प्रतिपदा) के दिन शयन-समय गाया जाता है। इसलिए पाठ परम्परा अविचल है, किंतु पूर्वी बंधुओं ने इसे विकृत बनाकर भावशून्यता के साथ संयोग-श्रृंगार से हटाकर वियोग में बैठाकर सुरुचि का परिचय नही दिया है। शुद्ध पाठ इस प्रकार- सुंदर बदन सदन सोभा कौ निरखि नैन-मन थाक्यौ। हौं ठाढ़ी बिथिन ह्वै निकसे, उझकि झरोखे झाँक्यौं॥ मोहन इक चतुराई कीन्ही, गेंद उछारि गगन मिस ताक्यौ। बारौं री लाज बैरिन भइ मोकौं, हौं गँवारि मुख ढाँक्यौं॥
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