विरह-पदावली -सूरदास
(330) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) व्रज पर फिर (मेघ) गर्जना करने लगे हैं। जैसे किसी बड़े (सम्मानित) व्यक्ति का (किसी प्रकार) सम्मान नष्ट हो जाता है तो फिर वह लज्जा के मारे मुख नहीं दिखलाता, इसी प्रकार मोहन व्रज नहीं आ रहे हैं। चारों ओर से मेघों के समूह उमड़ आये हैं और इस सूने व्रज पर बजने (शब्द करने) लगे हैं और व्रज के लोग कन्हैया के बल के बिना (अब) जहाँ-कहीं (इधर-उधर) भागने लगे हैं। श्यामसुन्दर स्वयं तो द्वारिका जाकर बस गये और वहीं सुशोभित (भी) होने (सुख मनाने) लगे हैं; किंतु श्यामसुन्दर-जैसे प्रियतम अक वियोग हो जाने पर (हम) गोपियाँ कैसे जीवित रहें? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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