विरह-पदावली -सूरदास
राग नट जो (गोपियाँ) जहाँ थीं, वहीं खड़ी रह गयीं। वे श्यामसुन्दर के चलते समय ऐसी दिखायी पड़ती थीं, मानो चित्र में चित्रित की गयी हों। उनके मुख सूख गये, नेत्रों से गिरती हुई प्रबल अश्रुधारा हृदय तक बह चली है। एक-दूसरी कंधों पर भुजा रखे (इस भाँति) देख रही हैं मानो वृक्ष पर फैली हुई लताएँ दावाग्नि से झुलस गयी हों। अक्रूर ने इन्हें इस प्रकार नीरस बनाकर छोड़ दिया है, जैसे मलाई से रहित दूध। सूरदास जी कहते हैं कि अक्रूर की कृपा (निष्ठुरता) से (वे) अपने शरीर पर (यह) महान विपत्ति सह रही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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