विरह-पदावली -सूरदास
(252) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) गोविन्द के बिना हमारे नेत्रों की जलन कौन दूर करे? हमारे लिये (यह) शरद् की रात्रि अग्नि बन गयी है और चन्द्रमा सूर्य (के समान उष्ण) हो गया है। शरीर में संताप उत्पन्न होने के कारण घरों का आनन्द छिप गया (नष्ट हो गया) है; (फिर भी) बार-बार प्रेम के कारण रोमांच होता है और आँसू ढुलकने लगते हैं। (मुझे) उन दिनों की याद आती है, जब वे (मोहन) पाँवों पड़ते थे (और मानते थे)। (अब) श्यामसुन्दर ने वन में (उन अनेकों) लीलाएँ करने की सुधि क्यों विस्मृत कर दी? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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