विरह-पदावली -सूरदास
(101) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) परदेशी का क्या विश्वास; क्योंकि वह प्रेम बढ़ाकर चला (तो) जायगा और पीछे केवल पश्चाताप मिलेगा। जैसे हिरन ने संगीत के स्वर पर मुग्ध होकर शरीर न्यौछावर कर दिया, क्योंकि उसे (प्रेम के कारण ही व्याध का) विषैला बाण लगा, उसी प्रकार श्यामसुन्दर! तुमने हमारे प्राणों को अपने प्रेम में लगाकर वश में कर लिया (इसका) विचार तो करो। हे हरि! राजा बलि ने, कपिराज वाली ने तथा बेचारी सूपर्णखा ने (तुम) से क्या छिपाया था (जो उसके साथ निष्ठुर व्यवहार किया)? स्वामी! मैंने भला जानकर (ही तुम्हें अपने अन्तःकरण में) भरा (संचित किया) था, किंतु (तुमने) अपने स्वरूप को भर (पूर्ण कर) के ढुलका दिया-अपने-आपको खींच लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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